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अनकही (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

दीपक जी बाजार में मिले तो पीछे ही पड़ गए "आज तो चलना ही पड़ेगा, मेरा मकान देखने, बहुत इन्ट्रेस्ट से बनवाया है मैंने।" दीपक जी मेरे बॉस रह चुके हैं, अतः अनिच्छा से ही सही, जाना पड़ा।

मकान वाकई बहुत सुन्दर बनाया गया था। सुन्दर बगीचे वाला कम्पाउण्ड, अन्दर हर कमरे में चमचमाते मार्बल के फर्श, कीमती फर्नीचर, दीवारों पर महँगे वालपेपर्स, बेहद सुन्दर फॉल्स सीलिंग्स, एक्वेरियम, प्योर लेदर के सोफे, चमचमाते वॉशरूम देखकर मेरे मुख से अपने आप 'वाह' निकल गया और मन में ऐसा ही मकान बनाने की इच्छा बलवती होने लगी।

चाय पानी के बाद हम बाहर आए तो दीपक जी एकाएक बोले, "अरे तुमने बाईक उधर दाईं तरफ क्यों खड़ी की ? उधर वालों से हमारा झगड़ा है।" फिर घूमकर बाईं तरफ के मकान की ओर देखा तो पत्नी पर चिल्ला पड़े "नीमा, तुम्हारे सुखाए कपड़े उड़कर उस तरफ जा रहे हैं, संभालो उन्हें।" फिर कुछ संकोची स्वर से बोले "ये दाएं तरफ वाले भी ऐसे ही हैं, इनसे भी बोलचाल बन्द है हमारी। नब्बे लाख का मकान जो बना लिया है मैंने, नाते रिश्तेदार भी आज तक देखने नहीं आए, सब जलते हैं साले मुझसे। खैर, कैसा लगा मेरा बंगला ?" "बहुत खूबसूरत, बहुत शानदार" मैंने कहा। "तुमने एक बात नोट की, मैंने हर कमरे, यहाँ तक कि बरामदे में भी बिजली कनेक्शन के कई-कई प्वाइंट लगवाए हैं, ताकि किसी को किसी इन्स्ट्रुमेण्ट के चार्जिंग में कोई दिक्कत न हो, है न दूरदर्शी सोच मेरी।"

"बिल्कुल सही" मैंने कहा "काश बिजली के कनेक्शंस के साथ आपने सम्बन्धों के कनेक्शन भी जोड़े रखे होते तो डिस्चार्ज पड़े रिश्ते भी चार्ज हो जाते" कहना चाहता था मैं, पर कह न सका।

 

© संतोष सुपेकर ( सातवें पन्ने की खबर से साभार )

ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com


संतोष सुपेकर जी,  1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )


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पछतावे भरा अतीत (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

"क्या पापा ?" विवेक अचकचा कर बोला, "आप, बस स्टैण्ड से बोल रहे हैं? मगर आप लोग तो ट्रेन से आ रहे थे न ?"

"ट्रेन लेट हो गई थी बेटा, पर बाकी बातें बाद में करेंगे।" परमानन्दजी का हकबकाया-सा स्वर था, "तू तो जल्दी से हमको लेने बस स्टैण्ड पर आ जा, हम यहाँ खड़े हैं एटीएम के पास।"

विवेक हड़बड़ाया-सा बस स्टैण्ड पहुँचा तो परमानन्दजी ने सारी बात बताई, "बेटा, हम सब तो ट्रेन में अपने कोच में सो रहे थे, तभी बीना स्टेशन पर जोरदार हंगामा होने लगा, ढेर सारे जवान लड़के, जो किसी नौकरी की परीक्षा के लिए आये थे, जबरदस्ती हमारे कोच में घुस आये, सोये हुए यात्रियों को उठाने लगे, उनसे मार-पीट, झगड़ा करने लगे। कोच में सवार महिलाओं, लड़कियों से छेड़छाड़ करने लगे। हम सभी बेहद घबरा गये थे, तेरी बहन उस समय बाथरूम गयी हुई थी। हमारा दिमाग चला, उसे फोन कर वहीं से बाहर निकलने को बोला, हम दोनों भी जैसे-तैसे बाहर निकले, बस स्टैण्ड पहुँचे और बस पकड़कर यहाँ तक आये, पर पता नहीं...", परमानन्दजी ने जोरदार झुरझुरी ली, "बेचारे बाकी पैसेंजर्स के साथ क्या घटी होगी ?"

"ओऽऽह" घटना सुनकर विवेक के मुँह से ऐसे निकला जैसे गुब्बारे से हवा और उस पर हावी होने लगा चार साल पहले का अतीत, जब उसने भी बेरोजगारों की फौज के साथ मिलकर ऐसी ही एक ट्रेन में जोरदार हंगामा कर यात्रियों को आतंकित और त्रस्त कर दिया था। तब तो वह बच गया था पर आज खुद को कठघरे में पा रहा था।

 

© संतोष सुपेकर ( मधुरिमा (दैनिक भास्कर)  से साभार )

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मजबूत स्वर (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

कड़ाके की सर्दी की एक सुबह, रामकिशन जब घर लौटे तो देखा, बेटी अभी भी सो रही है, “अरे” उसे झिंझोड़ते हुए वे कुछ क्रुद्ध स्वर में बोले, “अनु, अभी तक सो रही है, साढ़े सात बज गये हैं, स्कूल नहीं जाना क्या?”

“क्या बाबा, आप भी ! सोने दो न, बोहोत ठण्ड है, आज से हमारे स्कूल का टाइम भी नौ बजे हो गया है।” रजाई में से अनु का उनींदा स्वर सुनाई दिया।

“और तू राजू” वे फिर छोटे भाई की ओर मुड़े, “तू भी अब तक पड़ा हुआ है, तेरा दफ्तर भी क्या…”

“हाँ भैया, कड़क ठण्ड के कारण आज से हमारा ऑफिस भी ग्यारह बजे खुलेगा।” राजकिशन का एक विजेता-सा स्वर रजाई में से उभरा।

“ओऽऽह” रामकिशन फीकी-सी मुस्कान से बड़बड़ाये, “तो इस जमा देने वाली सर्दी में सबके देर तक सोने का इन्तजाम हो गया है, सिवाय मेरे... खेत पर तो बिजली रात डेढ़ बजे ही आती है, चाहे कितनी भी कड़ी ठण्ड क्यों न पड़े, मुझे तो उठकर जाना ही है खेत पर, क्या करूँ किसान हूँ न…” उनींद और विजेता स्वर के बाद यह एक मजबूर नहीं, एक मजबूत स्वर था।

 

 

© संतोष सुपेकर (तरंग नई दुनिया, इंदौर  से साभार )

ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com


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भयावह चिन्ता (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

कुछ दिन पहले टेलीविजन पर, अशान्त सरहदों पर मची मार-काट,

खून-खराबे के मध्य एक लोमहर्षक दृश्य देखा जो न सिर्फ याद रहा बल्कि एक

नयी चिन्तायुक्त सिहरन को भी जन्म दे गया...

 

इस दृश्य में युद्धग्रस्त, आतंकग्रस्त, शरणार्थी समस्याग्रस्त मुल्क का

एक विवश-अतिविवश पिता अपने छोटे बच्चे को सरहद की टूटी हुई बाड़ में

से पड़ोसी मुल्क की सरहद में छोड़ रहा था। ऐसा करते हुए उसकी आँखों में

प्रलय के आँसू थे। पिता से, मुल्क से बिछड़ते हुए नन्हे बालक का चेहरा ऐसा

हो रहा था कि क्रूरतम् व्यक्ति भी देखे तो फफककर रो पड़े...

 

ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई अपने जान से प्यारे बच्चे को किनारे से,

उफनते सागर में धकेल रहा हो, उम्मीद के खिलाफ इस उम्मीद में कि उफनते

सागर में तो कोई सम्भावना है बच्चे के बच जाने की, लेकिन किनारे पर मची

मार-काट, रक्तपात में तो उसका मारा जाना अवश्यम्भावी है।

 

हाहाकारी और अशान्त ऐसी कई सरहदें हैं दुनिया में ! मानवता की

कर्णबेधी और हृदयबेधी चीत्कार से उपजी मेरी इस चिन्तायुक्त सिहरन में शामिल

है, इन दृश्यों के आम होते जाने की चिन्ता...

 

© संतोष सुपेकर (नवनीत (मुम्बई) से साभार )

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सपनों की कोपलें (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

लगभग रोज सुबह अपने शानदार बंगलो के शानदार बगीचे में घूमते हुए वे देखते थे सामने रोड पर खड़े, शायद पास की तंग बस्ती के रहने वाले बाप बेटे को। एक व्यक्ति अपने छोटे, सात-आठ वर्षीय बच्चे को लेकर उनके घर के सामने खड़ा रहता था, स्कूल बस के इंतज़ार में।

बच्चा उनके आलीशान मकान की ओर देखकर लगभग रोज एक जैसी बात करता जो उनकी श्रवण शक्ति की सीमा में रहती, "पापा हमारा भी ऐसा बंगला होगा एक दिन। होगा न पापा?"

"पापा हमारे पास भी ऐसी कार होगी। ये..." बच्चा हाथ चौड़े करता, "लम्बी, बड़ी सी, चमचमाती सी. होगी न पापा?"

"पापा हमारे घर के बाहर भी ऐसा बगीचा होगा जिसमें सुन्दर पौधे, ऊँचे-ऊँचे पेड़ होंगे, होंगे न पापा?"

"पापा... पापा... हमारा भी.." "पापा हमारा भी..."

और उसका गरीब पिता बुझे मन से भोले भाले बेटे की हर बात का "हाँ हूँ, होगा बेटा, जरूर होगा" कहकर जवाब देता रहता।

अपने शानदार बगीचे के पौधों में उगती कोपलें तो वे रोज देखते ही थे, बाहर सड़क पर भी रोज कुछ कोपलें देखते। कुछ भोले से सपनों की कोपलें, उगते हुए और मुरझाते हुए।

© संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )

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अनसोचा राउंड (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

"आपको इतने ढेर सारे पुरस्कार, मेडल मिले हैं इस खेल में। आप पर बायोपिक बन गई।"
मैंने उस खिलाड़ी से पूछा, "अब आगे आपके क्या सपने हैं?"

"सपने!" सोचते हुए उपेक्षित खेल की वह अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी, बोली, "सपना तो एक ही दिखता है अब। काश, मैं सुंदर होती और बजाय खिलाड़ी के फिल्म एक्ट्रेस होती" बोलते हुए उसने उत्तेजना से हवा में अपना मुका तो लहराया लेकिन उसके चेहरे की चमक फीकी पड़ गई और पीछे शेल्फ में रखे, उसे मिले ढेरों स्मृति चिन्ह भी द्युतिहीन लगने लगे, "क्योंकि मुझे तो इस खेल से कुछ विशेष नहीं मिला, आज भी मामूली नौकरी करती हूँ, लेकिन मेरे खेल जीवन पर जब फिल्म बनी तो उसमें मेरा किरदार निभाने वाली अभिनेत्री ने बहुत कमा लिया।"

© संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )

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ताले, बिना चाभी वाले (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

"एँ! ये कैसा ताला?" सस्ता ताला खरीदने पटड़ी की एक दुकान पर गया और एक ताले को जब हाथ में लिया तो चौंक गया मैं, "दवाओ तो बन्द। और हाथ से खींचो तो खुल जाए? बिना चाभी के ही? ये कैसा ताला है भाई?"

"अरे वो आप छोड़ दो साब।" दुकानदार खिसियाता सा बोला, "वो ढेर मत देखो। वो माल भी आपके लिए नहीं है।" और उसने बाई तरफ इशारा किया, "आप इधर वाले ताले देखो। ये हैं आपके लिए।"

"पर ये खराब ताले..? यहाँ रखे ही क्यों हैं? ये भी बिकते हैं क्या?"

"हाँ बिल्कुल बिकते हैं साब। पीछे वाले रोड़ पर गाँव से आए हुए मजदूरों की कच्ची बस्ती बनी है। वो ही ले जाते हैं ये बिना चाभी के ताले! उनकी जिंदगी में गम के बड़े बड़े ताले तो हैं पर खुशियों की छोटी सी चाभी नहीं।"

"अरे वा! तुम तो फिलॉसॉफर हो।" मैं कुछ गम्भीर तो हुआ लेकिन फिर हँस पड़ा, "पर ये ताले तो खुल जाते हैं बिना चाभी के ही? फिर इनका मतलब ही क्या?"

"उनको मतलब है साब।" दुकानदार का स्वर जैसे किसी गहरे कुएँ से आता लगा तो अब मेरी हँसी भी कुएँ में गिरी किसी अंगूठी सी गायब हो गई, "बो गरीब काम पर जाते हैं तो ऐसे ही टूटे तालों को लगाकर। उनके पास ऐसा होता ही क्या है जो एक चोर के पास नहीं हो?"

- संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )

ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com


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खामोश ! (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

"बेटा, तुम वैज्ञानिक तो बनना चाहते हो।' पीटीएम (शिक्षक-पालक बैठक) में उस नए शिक्षक ने एक साधारण से लड़के से कुछ व्यंग्य से पूछा, "पर ये तो सोचा होगा कि बनाओगे क्या, अविष्कार किस चीज़ का करोगे?"

"मैं, मैं.. वह इंस्ट्रूमेंट बनाना चाहता हूँ" अपनी माता की ओर देखते, गोलीबारी में मारे गए व्यक्ति के दस वर्षीय पुत्र का जवाब था, "कि... कि "खामोश" कहते ही, बन्दूकें, तोपे, रिवॉल्वर सब, सहम कर हो जाएँ, खामोश!''

 

- संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )

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स्पीड ब्रेकर (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

"अरे डॉक्टर साहब, आज कार कहां है?" परिचित डॉक्टर सुमित उसके ऑटोरिक्शा में बैठे तो पूछ लिया उसने.

"वो तो अभी रिपेयर में ही है. छोड़ो यार वो किस्सा.. वैसे नरेन, यह तुम अच्छा करते हो." विषय बदलते हुए डॉक्टर साहब ने कहा, "मैंने पढ़ा है अखबार में तुम्हारे बारे में."

"क्या सर?"

"अरे यही कि किसी बूढ़े, गरीब आदमी से रिक्शे का भाड़ा नहीं लेते."

"हऽऽम"

"क्या हुआ भाई, सीरियस क्यों हो गए?" डॉक्टर ने संभलकर पूछा.

"डॉक्टर साहब एक बात कहूं." उसमें न जाने कैसे हिम्मत आ गई, "आप भी कुछ अच्छा करिये ना"

"मतलब? व्हाट डू यू मीन?"

"सर, मैं भी आपका मरीज रहा हूं. आप हर मरीज से सात सौ रुपए फीस लेकर उसे सिर्फ दस मिनट देखते हैं. भगवान ने बहुत कुछ दिया है आपको."

चिकनी सड़क पर सरपट भागते ऑटोरिक्शा को अचानक स्पीड ब्रेकर का झटका लगा, "आप भी ऐसा करिये न, हर महीने में किसी एक दिन, सिर्फ एक दिन, मरीजों को फ्री देखिए न!"

- संतोष सुपेकर

ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com


सुपेकर जी, वर्षों से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं और आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे कुछ हैं- सातवें पन्ने की खबर, प्रस्वेद का स्वर इत्यादि )


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जीवनसाथी - सौम्या गुप्ता

आज आपने फिर से चाय में चीनी ज्यादा कर दी, कितनी बार कहा है कि कम चीनी की चाय पिया करो.......मीनू ने गुस्से में फिक्र के कारण कहा।

लेकिन प्रेम ने पहले के अंदाज में मुस्कराते हुए उत्तर दिया....मुझे कुछ भी नहीं होगा तुम हो न मेरा ख्याल रखने के लिए, फिर मेरे लिए इतने व्रत भी तो करती हो।

मीनू का गुस्सा शांत हो जाता है और वो बोलती है शादी को 25 साल हो गये पर आपका उत्तर और अंदाज बिल्कुल भी नहीं बदला|

प्रेम ने मुस्कुराते हुए मीनू को एकटक निहारते हुए कहा.....मेरी रोज की आदत पर आज भी तुम मुझे पहले की तरह डांटती हो तुम भी कहाँ बदली हो मीनू?

दोनों ने चाय का कप हाथ में लिया और बालकनी की तरफ़ चल दिये, वहां पहुंचकर प्रेम ने मुस्कुराते हुए पूछा, मीनू हमारे साथ में या हमारे प्रेम में ऐसा क्या था कि हम आज भी पहले की तरह ही है, जैसे शादी के तुरंत बाद थे ?

मीनू ने कहा...आपने मुझे कभी बाँध के नहीं रखा,  मेरी स्वतंत्रता का सम्मान किया....मुझे और मेरे घर वालों को अपने ही परिवार की तरह समझा...इससे मेरी नजरों में आपका सम्मान बहुत बढ़ गया....आपने हमेशा मुझपर विश्वास किया....मेरी जॉब के लिए भी मुझे माहौल दिया.....रोज कुछ न कुछ वक्त हम साथ बिताते हैं |

प्रेम ने कहा हाँ जैसे अभी बिता रहे है....तुम मेरी सुख-दुख की सबसे ख़ास साथी हो...मैंने वहीं किया जो हर पति को करना ही चाहिए....विश्वास, प्रेम और सम्मान ही तो रिश्ते की नींव होते है 

मीनू कहती है, हाँ आप सही कह रहे है हम दोस्त बनकर ही ज्यादा रहे है और अपेक्षाओं का भारी पुलिंदा भी नहीं रखा इसीलिए आज भी हम बेस्ट फ्रेंड हैं, प्रेम में जरूरी है कि हम एक दूसरे को आत्म उन्नती की ओर भी ले जाए,  एक दूसरे के बिना भी हम खुश रह सके, हमारे रिश्ते में डर न हो,....आपने मुझे इस बात में भी सहायता की और स्वतंत्र चेतना समझा....लोगों के जैसी आपके मन मे स्त्री के प्रति पुरानी सामंतवादी सोच भी नहीं थी

प्रेम अपने अंदाज में फिर कहता है, मीनू तुम्हारा जैसा रुख था जीवन में गरिमा, आत्मनिर्भरता और उत्कृष्टता पाने का मैंने बस तुमको वैसा जीवन जीने दिया है, स्त्री और पुरुष दोनों स्वतंत्र चेतना ही है बस सृष्टि के संचालन के लिए  कुछ अन्तर है।

मजाक करते हुए प्रेम कहते हैं, वैसे एक बात और पूछनी है मेरी प्यारी मीनू से, बेस्ट फ्रेंड के बाद बॉय फ्रेंड बनने का भी चांस है क्या ? और हंसने लगते हैं 

मीनू, आप नहीं सुधरने वाले ! हाँ क्यों नहीं....रिश्ता लेकर घर कब आओगे?

फिर दोनों हँसते हुए अपनी चाय खत्म करते हैं |

मीनू और प्रेम साथ मिलकर अपना और बच्चों का लंच पैक करके निकल जाते है अपने-अपने काम पर। 

 

- सौम्या गुप्ता 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |


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