अस्पताल के एक वार्ड में दो मरीज भर्ती थे। दोनों को एक ही बीमारी थी, दिल की। दोनों का छोटा-सा आपरेशन होने वाला था। एक जो जवान मरीज था, वह दर्द से कराह रहा था, छटपटा रहा था, बेचैनी महसूस कर रहा था। दूसरा मरीज जो अधेड़ उम्र का था वह एकदम शांत भाव से बिस्तर पर पड़ा था। जब दोनों का आपरेशन हो गया और एक नये वार्ड में लाया गया तो जवान मरीज ने पूछा-अंकल जी! क्या कल आपको दर्द नहीं हो रहा था?
आप बिल्कुल खामोश थे, जबकि मैं दर्द से तड़प रहा था।
अधेड़ शांत भाव से कहने लगा-दर्द तो मेरा भी असहाय था लेकिन तुम्हारे सामने तुम्हारे पिता जी थे, जो तुम्हें प्यार-दुलार के साथ बार-बार सांत्वना दे रहे थे। धैर्य बंधा रहे थे। वह काफी परेशान थे, तुम्हें बेचैन देखकर और तुम भी लाड़ लगा रहे थे। तुम्हारे विपरीत, मेरे बगल में बैठा मेरा बेटा झपकी ले रहा था। पिछली दो रातों से वह मेरी वजह से सोया नहीं था.मुझे अपने दिल से ज्यादा दिल के टुकड़े का ख्याल था तो मैं दर्द जाहिर कैसे
होने देता ? जवान का, एक पिता की महानता के आगे सिर झुक गया।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
ईमेल- ssinhavns@gmail.com
आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-
पांच लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
5. कथा कहानी (2023)
अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है।
अपनी सिद्ध लेखनी से सुषमा जी जीवन के अनछुए पहलुओं पर लिखती रही हैं और लघु कथा विधा को और अधिक समृद्धशाली कर रही हैं लेखिका और उनके लेखन, शिक्षा और सम्मान के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें |
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शुभकामनाएं
आज अभय ने हमें लज्जित करने वाला काम किया है,अभय के दादा जी ने परिवार के सामने कहा।
दादी जी - अरे क्यों डांट रहे हो मेरे पोते को, आप बताइए तो कि इसने क्या किया है?
दादा जी - मैं इसे एक परिचित के घर ले गया था और मेजबान के पूछने पर कि खाने में क्या खाओगे? तो इसने कहा नमक- रोटी। वो क्या सोचेंगी कि इसको क्या यही खाना मिलता है घर में?
दादी जी - कोई बात नहीं, मेरा अभय आगे से ऐसा नहीं करेगा, अब मत डांटिये मेरे पोते को।
अभय ने विस्मित मन से सोचा कि माँ के व्यस्त होने पर घर में भी नमक रोटी खा लेता हूं, वहां अगर किसी की सहूलियत के लिए ये खाने को बोल दिया तो क्या गलत कह दिया? पर उत्तर न मिलने पर दादा जी की डांट से आहत हुआ अभय सुबकते हुए और यह सोचते हुए कि मैंने गलत क्या किया दूसरों की सहूलियत का ख्याल करके, वह सो गया।
सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |
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शुभकामनाएं
वह जगह शहर से थोड़ी हटकर थी, इसलिए कुछ सुनसान-सी थी। छिटपुट घर-मकान और गिनती की दुकान। बारिश तेज हो रही थी। एक लड़का पानी से बचने के लिए एक दुकान के छज्जे के नीचे जाकर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद दुकानदार ने कहा, बेटा जरा एक बगल होकर खड़े रहो, ग्राहकों को आने में परेशानी न हो। लड़के ने हंसते हुए कहा, इस मौसम में कौन आएगा, आपकी दुकान पर। दुकानदार ने छूटते ही बोला, जैसे तुम आ गए हो। ऐसे ही समय में तो लोग आश्रय ढूंढते हैं। आते हैं पानी से बचने के लिए, परन्तु उनमे से कुछ को यूं ही खड़ा रहकर पानी रुकने का आसरा देखना अच्छा नहीं लगता, सो दुकान के अन्दर बैठकर चाय पीते हुए, पानी थमने का इंतजार करते हैं। सचमुच एक बारगी पानी का बौछार तेज हो गया तो चार-पांच लोग एक साथ दुकान में चले आएं। फिर कुछ पल में ही अन्दर बैठकर चाय पीने लगे। लड़का एक नजर उस अनुभवी और समझदार दुकानदार की ओर देखा, फिर थोड़ा शर्माते हुए, एक कप चाय का आर्डर देकर दुकान के अन्दर बैठ गया।
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आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-
चार लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
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शुभकामनाएं
अम्मा की खांसी बढ़ती जा रही थी। ऐसे में ठंड के समय दमा की बीमारी और भी परेशान करती ही है। दूसरी तरफ यह भी सच था कि अम्मा की ना तो सही से देखभाल हो रही थी न ठीक से दवा-दारूही हो रही था। बहू तो अम्मा की खांसी से इतनी ऊब चुकी थी कि उनके लिए सबसे पीछे वाले कमरे में व्यवस्था कर दी थी। पति के पूछने पर कारण बताती हुई कहने लगी-क्या करूं, घर में चार लोग आते-जाते रहते हैं। ऐसे में अम्मा के कारण बड़ी असुविधा और शर्म-सी महसूस होती है। फिर मुझे भी रात को सोने में दिक्कत होती है। घर भर को असुविधा ना हो, इसलिए ऐसा की। घर में बच्चे-बड़े, सब टीवी, मोबाइल पर व्यस्त रहते। ऊपर से पीछे का एकान्त कमरा ! अम्मा की खांसी की आवाज किसी को ठीक से सुनाई ही नहीं देती थी। वह खांसते-खांसते हलकान भी हो जाती तो भी किसी को पता नहीं चल पाता। कभी-कभी पोता बिट्ट जो आठ वर्ष का था, दादी के पास आकर बैठता और बातें भी करता। दादी से पूछता-दादी तुम्हारी खांसी कब ठीक होगी? दादी उसके सर पर हाथ फेरती हई उसे प्यार करती हई कहती-यह बुढापे की बीमारी है। मेरे दम के साथ ही जाएगी। वह ठीक से दादी की बात नहीं समझ पाता और बदले में दादी को भी प्यार-दुलार करता हुआ वहां से चला जाता। एक दिन सचमुच दादी खांसी के साथ ही इस दुनियां से विदा ले ली। अगले साल जाड़े के मौसम में बिट्टू की मां खांसी की चपेट में आ गई। एक रात बिट्टू, मां से कहने लगा-मम्मी तुम खांसी वाले कमरे में पीछे जाकर क्यों नहीं सोती हो, तुम्हारी वजह से मैं ठीक से सो नहीं पाता।
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सुबह-सुबह बहू घर में हंगामा मचाई हुई थी। पता नहीं, अम्मा जी कहां चली गई हैं। घर में हर जगह देख लीं। वह आस-पड़ोस में भी पता करने चली गई। घर में पति और तीनों बच्चे भी घबरा गए। हे भगवान ! मां अस्सी साल की है। उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता, आखिर कहां जा सकती हैं, अचानक उन्हें क्या हो गया, फोन पर भी जान-पहचान वालों से पूछताछ शुरू हो गई। पड़ोस के कुछ लोग घर पर आ गए और मां जी के बारे में बातें करने लगे। घर में शोरगुल होने लगा। तभी सबसे छोटा बेटा जो सात-आठ साल का था, सबके बीच में कहने लगा-आप लोग बेकार में परेशान हो रहे हैं, मम्मी को तो पता है दादी कहां जा सकती है, क्योंकि मम्मी ही तो उन्हें पता बताती रहती है। कभी आश्रम जाने को कहती है, कभी मंदिर, कभी तीरथ, कभी बुआ के घर। अचानक ही घर में ऐसी खामोशी छा गई, मानो घर नहीं कोई वीराना हो।
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शुभकामनाएं
अखबार पढ़ते-पढ़ते सुधीर बाबू चहक उठे। पत्नी को आवाज देते हुए कहने लगे, सुनती हो मेरा एक जूनियर इसी शहर में अधिकारी बनकर आया है। खूब जल्दी तरक्की की है उसने। मैं जब बिजली आफिस से रिटायर किया था तो बहुत दिनों तक वह फोन करता था, मैं ही कभी अपनी तरफ से उसे
फोन नहीं किया। खैर, चलो अब हमारा बिजली वाला काम आसानी से हो जायगा। काफी समय से पेंडिंग पड़ा है। पत्नी भी खुश होकर कहने लगी, यह
तो बड़ी अच्छी बात है।
फिर देर किस बात की। फोन मिलाइये और बधाई देते हुए अपने काम
की बात करने पहुंच जाइये बिजली आफिस । हां-हां, ऐसा ही करता हूं। वह
बिना विलम्ब किये फोन लगाये। बधाई-आशीर्वाद देने के बाद थोड़ी देर तक
इधर-उधर की बातें करके फोन रख दिये। अब पत्नी को गुस्सा आ गया। वह
झुझलाहट में बोली आप भी हद करते हैं। आलतू-फालतू की बातें कर लिये,
मेन मुद्दे की बात भूल गये।
इसे ही कहते हैं, "आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास!" धत्त ।
सुधीर बाबू कुछ झेंपते हुए कहने लगे, मैं क्या कहता-कैसे कहता। फोन
करते ही उसने यही कहा-क्या सर, बहुत दिनों बाद याद किये, कोई काम है
क्या ?
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1. औरत (2004)
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रजनी शर्मा बस्तरिया की कहानी “रोशनी के डोंगे” भारतीय लोकजीवन, विशेषतः छठ पर्व की आध्यात्मिक आभा और ग्रामीण संवेदना को अत्यंत काव्यात्मक भाषा में रूपायित करती है। यह कहानी मात्र एक पर्व का दृश्य नहीं रचती, बल्कि उसमें निहित नारी के तप, जिजीविषा, सौंदर्य और विश्वास की सांस्कृतिक गाथा प्रस्तुत करती है।
भावभूमि और संवेदना:
कहानी का आरंभ एक शहर की बालकनी से होता है — एक ऐसा स्थान जहाँ लेखक स्वयं को ‘देहाती अंदाज़’ में टिकाए हुए है। यही बालकनी ग्रामीण स्मृतियों और शहरी वास्तविकताओं के बीच संवेदनात्मक सेतु बन जाती है। कथा का परिवेश धीरे-धीरे छठ पर्व की प्रतीक्षा और उल्लास से भर उठता है — “कानों में छठ के गीत हक जमाती आ रही थी।” यह पंक्ति पूरे वातावरण में श्रद्धा और लोक-उत्सव की गंध बिखेर देती है।
प्रतीकात्मकता और बिंब-योजना:
कहानी की भाषा चित्रमयी है। लेखक ने रोशनी, धूप, सूरज, घाट, टिकुली, दीपशिखा, अंजोर आदि प्रतीकों के माध्यम से जीवन, संघर्ष और आशा की सततता को दिखाया है।
“चँदा टिकुली का डूबते सूरज से भिड़ंत होना” — यह दृश्य नारी-सौंदर्य और प्रकृति के संगम का अद्भुत बिंब है। “घाट पर रोशनी के डोंगे, और उम्मीद की पतवार” — यहाँ दीप सिर्फ़ पूजा का साधन नहीं, बल्कि जीवन-संघर्ष में उम्मीद का रूपक बन जाता है।
कहानी का शीर्षक “रोशनी के डोंगे” भी इसी प्रतीकात्मक अर्थ का विस्तार है — जीवन रूपी अंधकारमय सागर में तैरती विश्वास की ज्योति।
नारी और लोकजीवन:
लेखिका ने छठ पर्व को ‘व्रती साम्राज्ञियों’ का साम्राज्य कहा है। यह दृष्टि विशेष रूप से स्त्री-केन्द्रित है।
वे स्त्रियाँ केवल सजने-सँवरने वाली नहीं, बल्कि त्याग, अनुशासन और श्रद्धा की प्रतीक हैं। लेखक की दृष्टि में वे इस लोकविश्वास की असली वाहक हैं, जो अंधकार में भी अंजोर जगाती हैं।
शैली और शिल्प:
कहानी का शिल्प काव्यात्मक गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। भाषा में लय, ध्वनि, और दृश्यात्मकता है। “बादलों का टुकड़ा आकर मेरे पास लुढ़क जाता है”, “हवाएँ अखबार के बाल सँवारने की ज़िद करती हैं।”
ऐसे बिंब कहानी को संवेदना और सौंदर्य के सम्मिलन तक पहुँचा देते हैं।
विदुषी लेखिका रजनी जी ने ग्रामीण संस्कृति को आधुनिक नगर जीवन के संदर्भ में रखकर ‘सांस्कृतिक पुनर्स्मरण’ का प्रभाव उत्पन्न किया है।
अन्तर्निहित दर्शन:
कहानी अंततः उम्मीद, संघर्ष और जिजीविषा की कथा है।
छठ का पर्व यहाँ आस्था का सामाजिक रूपक है। ‘रोशनी के डोंगे’ — वे दीप हैं जो हर स्त्री अपने विश्वास से जलाती है, ताकि जीवन की अंधेरी लहरों में भी दिशा बनी रहे।
इसप्रकार, “रोशनी के डोंगे” एक संवेदना-संपन्न, सौंदर्यपूर्ण और प्रतीक-प्रधान कथा है, जिसमें लोक और शहरी जीवन के बीच आस्था की एक उजली लकीर खिंचती है।
रजनी शर्मा बस्तरिया ने इस कहानी में छठ पर्व की आत्मा, भारतीय नारी की सहनशीलता, और मनुष्य की जिजीविषा को बड़ी सहजता से शब्दों में बाँधा है। यह कहानी पाठक के भीतर भी एक दीप जलाती है —
“जुगजुगाता अंजोर…” —
यानी आशा की वह ज्योति, जो हर युग में, हर मन में, जलती रहनी चाहिए।
-डॉ. रौशन शर्मा.
दिल्ली विश्वविद्यालय
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एक पिता अपनी बेटी से.....तुम बहुत दिनों से जॉब के लिए परेशान थी, मैंने तुम्हारे लिए जॉब ढूंढ ली है।
बेटी खुशी से..... आप बताइए पापा कौन सी जॉब है?
पिता ने कहा....अपने दस्तावेज़ निकाल के दे देना, दो लाख का इंतजाम करना होगा।
ये सुनते ही बेटी की खुशी उदासी में बदल गई, उसने कहा पापा ये जॉब तो मेरिट के आधार पर मिलती है,
पिता.. जहां तक मै जानता हूँ ..कोई सरकारी नौकरी बिना घूस के नहीं मिलती, ऐसे सिद्धांत पकड़ के रखेगी तो एक दिन बहुत बुरा हो सकता है, खाने को भी न रह गया तो?
बेटी ने कहा.....पापा खाने को कुछ न मिला तो शायद कुछ दिन जी जाऊँगी, पर किसी दूसरे के हिस्से का खाकर तो जीते जी मर जाने के बराबर है, मैंने अपनी सहेली को देखा है उसके पिता के बुरे कर्मों के कारण आज वो परेशान है, फिर आपने ही तो सिखाया है अपने सिद्धांतों के साथ खड़े रहना( बेटी ने पिता के मन को कूटनीतिक बुद्धि से जीता क्योंकि वो जानती थी कि उसके पिता कैसे मानेंगे)
इस बहस में बेटी जीत गई और पिता हारकर भी जीत गये ( बेटी ने मन ही मन अपने गुरु को याद किया और उन्हें धन्यवाद दिया जिनके जीवन से प्रेरणा पाकर उसने यह सत्याग्रह जीता था) लेकिन पिता अपनी बेटी की परीक्षा लेकर खुश थे |
- सौम्या गुप्ता
बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |
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अरसा हो गया था, नपी -तुली हवायें खिड़कियों के सात पहरों से ही कुंडियाँ खटखटाकर आतीं थीं। अब धीरे से रजाई से झाँकता सूरज!
कानों में छठ के गीत हक जमाती आ रही थी। अब मैने भी गठियाये गिरह खोल दिए ।
ज्यादातर शहर की बालकनियाँ कतरे गये पौधों की जमात भर रह गई है। जहाँ मंहगे गमले ,कालीन और न जाने क्या-क्या? पर मैंने बालकनी शहर में भी देहाती अंदाज में रखे हैं। इसमें ऐश्वर्य की चीज बस एक बैठने का मोड़ा । जिस पर बैठकर या बालकनी में दुबककर दुनिया ज़हान को निहारना । यही मेरा गवैंया शगल ......
बादलों का टुकड़ा आकर मेरे पास लुढ़क जाता है और हवाएं अखबार के बाल सँवारने की जिद करती हैं । चाय की ताप मेरे भीतर आ जाती है।
रात से ही शीत से कहा- सुनी हो गई थी पर उम्मीद थी कि सुबह कनखी कुतरती धूप सुलह करवा ही देगी! और हुआ भी यही। शीत भी आँखें उघाड़ कर सूरज को देखना चाह रही थी , वह भी चोरी छुपे!
पहले सड़क पर दूर से बजती बैंड बाजे की आवाज आई। सड़क की अटारी पर पतुरिया, माई के आने की खबर ला रहीं थीं ।
छठी पर्व के गीत हरक़ारा बन पाती बाँच रहे थे मैं अपनी पारी की प्रतीक्षा में थी।
अहा ! माहुर रचे पाँव ,पायल बिछिया। सड़क भी बिल्कुल शांत थी! इतने माहुरिया गंध वाले पाँवों को हौले हौले वह भी सहेज रही थी।
अब अगर यह अवसर गंवा दिया तो फिर साल भर की प्रतीक्षा करनी होगी। सही तो है रोज-रोज वही कीमती पनही की लगातार झझरंग-झझरंग झांपे।
पाँवों के साथ पाँवजोरी करती आँचल के छोर वह भी ललिया चुनर की घेराबंदी में!
कलाइयों में सतरंगी चूड़ियाँ एक लय में जल तरंग सी बजती हुई। करधन के घुँघरू ,कान के झुमके इतना *शालीन सौंदर्य* आज घाट की ओर! एक लय में जा रहे थे।
चँपई अंधेरा भी पलक झपकाना भूल गया था। माथे पर चँदा टिकली दपदप करती हुई । मानो ललाट पर ही सूरज उग आया हो और इस चँदा टिकली का डूबते सूरज फिर उगते सूरज से भिड़ंत होने वाली हो!
गोद में शिशु ,सूपा, टोकनी ईख , कदली फल और न जाने क्या क्या?
मैं आज एक-एक दृश्य को भरपूर देखना चाह रही थी। लंबे केशों के स्वामिनियों के पद चालन की गति चँवर डोला रही थी। हाँ यह कोई साधारण नहीं बल्कि व्रती साम्राज्ञियाँ ही तो हैं। इनके लिए , इनके संग रोशनी का साम्राज्य ही तो पसरा है ।
रेले को जाते मैने देखा । मैं प्रतीक्षा में थी उनकी वापसी की ।
अहा!
बंदन नाक से लेकर कपाल के अंतिम छोर तक.........!
जैसे सूरज अंतिम छोर तक हो।
माई को गाड़ी में बिठाते नवयुवक, युवतियों की ठिठोली , बहूओं का आँचल, बच्चों के हाथों में गुब्बारे।
सूरज को लेकर लौटना। दोनो में अर्ध्य, नमन में पगा प्रणाम , बातियों की ऊबक -डुबक, घाट पर रोशनी के डोंगे, और उम्मीद की पतवार ।
संसार के सागर में पार उतरना इतना आसान होता है क्या? यह चँदा टिकुली जो आकाश के माथे पर लकलका उठा है । इस छठ पर्व की छटा देहाती बालकनी से देखना।
पर्व मेरे अंतस में उतर गया.....जंगली घास के रंगीन टोकनियाँ । जिजीविषा , संघर्ष, उम्मीद के रंगों से रंगे उनके लिए भी मन ललच गया।
मन तो सड़क का भी ललचा गया । सड़क आज घाट तक पहुँचने को बहुत आतुर, व्याकुल। घाट जो जाती थी नदी तक..... जिस पर उतरती थीं व्रत धारिणियाँ। माहुर रचे पाँव उतरते थे घाट पर, लहरता पनीला आँचल झरते फूल ,झलपता नेह ,दोनो में कंपित दीपशिखा की लौ ।
जुगजुगाता अंजोर.......
© श्रीमती रजनी शर्मा बस्तरिया
रायपुर छत्तीसगढ़
आदरणीय श्रीमती रजनी शर्मा बस्तरिया जी की रचनाएं हमे मानवीय संवेदना, सामाजिक संघर्ष और विसंगतियों पर प्रकाश डालती और लोगों मे संवेदना और जागरूकता जगाने का सफल प्रयत्न करती दिखती हैं, वह एक शिक्षिका, लेखिका और साहित्यकार हैं, जिन्होंने बस्तर की संस्कृति और जीवन पर आधारित कई किताबें लिखी हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा और बस्तर में तैनाती के दौरान आदिवासी संस्कृति, लोक नृत्य, बोलियों और त्योहारों के बारे में सीखा और इन विषयों पर 14 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ की सरकार और साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है।
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आज शाम की वॉक पर शर्मा जी बड़े अनमने से चुप-चाप चल रहे थे। संग चल रहे गुप्ता जी ने इसे भांप लिया था ।
" क्या बात है शर्मा जी ! आज आप कुछ परेशान से लग रहे हैं ? बताइए ना कुछ हमारे लायक हो तो ,हम मदद के लिए तैयार हैं "।
शर्मा जी पहले तो बात को टालते रहे ,लेकिन कई बार कुरेदने पर कहने लगे " क्या बताऊं गुप्ता जी लगता है मैंने आपकी बात न मान कर बहुत बड़ी गलती की है ।
रैन्ट पर घर देने से पहले आपने चेताया था ,लेकिन मुझे लगा था कि घर लेने वाला लड़का पढ़ा-लिखा है । पैथोलॉजी लैब है उसकी ।अच्छी कमाई होती होगी । समय पर किराया मिलता रहेगा ,हमें और क्या चाहिए जात पात कोई मायने नहीं रखती मेरे लिए।"
"तो फिर कोई गड़बड़ कर दी क्या उसने" ।
" घर देने बाद हमें पता चला कि भ्रूण परीक्षण की आड़ में वह लिंग बताने का गैर कानूनी धंधा करता था जिसके चलते उसकी लैब पर 2 वर्ष से सरकार की सील लगी हुई है , और इस वजह से वह जेल भी जा चुका है "।
"अरे ..."
" जिन लोगों की उधारी है उसके सिर पर ,वो आए दिन आकर उससे गाली गलौज करते हैं ।बड़ी शर्म आती है हमें "।
शर्मा जी ने एक गहरी सांस ली, और मौन हो गये।
" आपके घर का रैंट तो समय पर देता है या वो भी ....." गुप्ता जी ने हैरानी से पूछा ।
" अजी कहां ! अभी तक तो किराया मांगने पर पति पत्नी कोई न कोई बहाना बना देते थे ।लेकिन कल जब मैं उनके घर तगादा करने गया , किरायेदार की पत्नी घर में अकेली थी।
मैंने पूछा बेटा पांच माह हो गये ,इस महिने भी किराया देना है या नहीं ।
तो उसने आंखें दिखाते हुए उल्टा मुझी पर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। ' अंकल जी जब पैसे होंगे दे देंगे हम , परेशान करोगे तो देख लेना.. "
" क्या देखना है बेटा मैं कोई नाजायज मांग तो कर नहीं रहा क्या करोगी बताओ " मैंने कहा तो कहने लगी हम एससी हैं और सरकार ने हमारे लिये खास कानून बना रखा है उसी में आपके ऊपर छेड़छाड़ की रिपोर्ट दर्ज करा दूंगी '।
" मैं तुरंत उल्टे पैर हो लिया वहां से ।यार गुप्ता गर्म दूध मुंह में भर लिया है जो न उगलते बन रहा है ,न निगलते ही ।कुछ समझ नहीं आ रहा क्या करूं ।मैं इज्जतदार इन्सान हूं ।इस उम्र में
अगर उसने मुझे फंसा दिया तो मैं तो जीते जी मर जाऊंगा ।
© सुनीता त्यागी
राजनगर एक्सटेंशन गाजियाबाद
ईमेल : sunitatyagi2014@gmail.com
आदरणीय सुनीता जी की रचनाएं हमे मानवीय संवेदना, मानवीय भावना के विभिन्न रूप और तीव्रताएं यथा प्रेम, परवाह, चाह और संकल्प इत्यादि, नज़र की सूक्ष्मता, सामाजिक संघर्ष और विसंगतियों पर प्रकाश डालती और लोगों मे संवेदना और जागरूकता जगाने का सफल प्रयत्न करती दिखती हैं, इनकी रचनाएँ पढ़कर खुद को एक संवेदी और व्यापक सोंच और दृष्टिकोण वाला इंसान बनाने मे मदद मिलती है |
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