कुछ दिन पहले टेलीविजन पर, अशान्त सरहदों पर मची मार-काट,
खून-खराबे के मध्य एक लोमहर्षक दृश्य देखा जो न सिर्फ याद रहा बल्कि एक
नयी चिन्तायुक्त सिहरन को भी जन्म दे गया...
इस दृश्य में युद्धग्रस्त, आतंकग्रस्त, शरणार्थी समस्याग्रस्त मुल्क का
एक विवश-अतिविवश पिता अपने छोटे बच्चे को सरहद की टूटी हुई बाड़ में
से पड़ोसी मुल्क की सरहद में छोड़ रहा था। ऐसा करते हुए उसकी आँखों में
प्रलय के आँसू थे। पिता से, मुल्क से बिछड़ते हुए नन्हे बालक का चेहरा ऐसा
हो रहा था कि क्रूरतम् व्यक्ति भी देखे तो फफककर रो पड़े...
ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई अपने जान से प्यारे बच्चे को किनारे से,
उफनते सागर में धकेल रहा हो, उम्मीद के खिलाफ इस उम्मीद में कि उफनते
सागर में तो कोई सम्भावना है बच्चे के बच जाने की, लेकिन किनारे पर मची
मार-काट, रक्तपात में तो उसका मारा जाना अवश्यम्भावी है।
हाहाकारी और अशान्त ऐसी कई सरहदें हैं दुनिया में ! मानवता की
कर्णबेधी और हृदयबेधी चीत्कार से उपजी मेरी इस चिन्तायुक्त सिहरन में शामिल
है, इन दृश्यों के आम होते जाने की चिन्ता...
© संतोष सुपेकर (नवनीत (मुम्बई) से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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