Recent Articles Related To लघु कहानियां

लबादा (लघुकथा) - लवकुश कुमार

आप इतना खुलकर कैसे बात कर लेते है, क्या आपको डर नहीं लगता? कि सामने वाला आपके बारे में गलत सोच सकता है?

नहीं मुझे लोगों का डर नहीं लगता क्योंकि मैंने शराफत का लबादा नहीं ओढ़ रखा है।

©लवकुश कुमार


लेखक भौतिकी में परास्नातक हैं और उनके लेखन का उद्देश्य समाज की उन्नति और बेहतरी के लिए अपने विचार साझा करना है ताकि उत्कृष्टता, अध्ययन और विमर्श को प्रोत्साहित कर देश और समाज के उन्नयन में अपना बेहतर योगदान दिया जा सके, साथ ही वह मानते हैं कि सामाजिक विषयों पर लेखन और चिंतन शिक्षित लोगों का दायित्व है और उन्हें दृढ़ विश्वास है कि स्पष्टता ही मजबूत कदम उठाने मे मदद करती है और इस विश्वास के साथ कि अच्छा साहित्य ही युवाओं को हर तरह से मजबूत करके देश को महाशक्ति और पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाने मे बेहतर योगदान दे पाने मे सक्षम करेगा, वह साहित्य अध्ययन को प्रोत्साहित करने को प्रयासरत हैं, 

जिस तरह बूँद-बूँद से सागर बनता है वैसे ही एक समृद्ध साहित्य कोश के लिए एक एक रचना मायने रखती है, एक लेखक/कवि की रचना आपके जीवन/अनुभवों और क्षेत्र की प्रतिनिधि है यह मददगार है उन लोगों के लिए जो इस क्षेत्र के बारे में जानना समझना चाहते हैं उनके लिए ही साहित्य के कोश को भरने का एक छोटा सा प्रयास है यह वेबसाइट ।


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सुख की कामना (लघुकथा ) - सौम्या गुप्ता

सुबह-2 गुलाबी ठंड को महसूस करती हुई स्तुति ने अपने मन में सोचा - अब तो और भी ज्यादा ठंड पड़ेगी, धूप नहीं निकलेगी, कपड़े नहीं सूखेंगे, दूसरी कितनी ही परेशानियां होंगी। हमेशा जब ज्यादा ठंडी होती है या ज्यादा गर्मी होती है तब हमें परेशानी होती है। हमें बसंत (मिलता-जुलता गर्मी-ठंडी का मौसम) बहुत पसंद आता है। अचानक एक बिजली सा विचार आया कि ये मिलता -जुलता मौसम हम अपनी जिंदगी में क्यों नहीं चाहते? सिर्फ सुख की कामना क्यों?

-सौम्या गुप्ता 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |


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कृष्णत्व (लघुकथा) - सौम्या गुप्ता

मीरा उस लड़के के पीछे दौड़ी जिसको उसने अपने सिर पर मोर पंख सजाये हुए देखा था, उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए मीरा ने कहा- तुम्हारा नाम क्या है?

उस लड़के ने कहा- कृष्णा 

मीरा - माथे पर मोर पंख लगाने से और हाथों में बांसुरी पकड़ने से कोई कृष्ण नहीं बन जाता, कृष्ण बनने के लिए न जाने कितने राक्षसों का वध करना पड़ता है, सबकुछ जो प्रिय हो उसे छोड़ने का साहस होना चाहिए, धर्म की स्थापना करनी होती है। कृष्ण को अपना आराध्य मानने वाली मीरा ने कहा।

कृष्णा( जो एक साधारण लड़का था) उसने कहा...पता है मुझे मैं कृष्ण नहीं हूं और इतना कृष्ण को तुम जानती हो तो ये भी जानती होगी कि कृष्ण को एक बहेलिये ने बाण मारा था जिससे उनकी मृत्यु हुई थी।

मीरा ने उदास और भरी हुई आँखों से हाँ में जवाब दिया।

उस साधारण लड़के ने कहा.....कृष्ण गए थे पर कृष्णत्व आज भी है।

मीरा ने प्रश्न भरी आँखों से कृष्णा की ओर देखा।

कृष्णा-आज अगर हम भगवद्गीता के अनुसार काम करे तो कृष्णत्व को ही जीवित रखने का काम कर रहे है और इससे कहीं न कहीं कृष्ण भी हमें हमारे बीच महसूस होंगे 

मीरा ने कहा......हम कहाँ से कृष्ण की बातों को जी सकेंगे, उनके कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग को मान सकेंगे, वो तो भगवान थे।

कृष्णा-  कृष्ण ने ये सब किया इसीलिए वो भगवान बने, लेकिन हम यही समझते है कि वो भगवान थे इसीलिए ये सब किया।

आज मीरा की आंखें खुल चुकी थी, वो साधारण कृष्णा उसके लिए कृष्ण बन चुका था। कृष्ण और कृष्णत्व को समझकर आज वो अपने आराध्य के प्रति पहले से ज्यादा श्रद्धा भाव से भर गयी थी, उसने अपना जीवन भी सच्चे अर्थों में कृष्ण भक्त के रूप में बिताया।


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |


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पता (लघुकथा) - सुषमा सिन्हा

सुबह-सुबह बहू घर में हंगामा मचाई हुई थी। पता नहीं, अम्मा जी कहां चली गई हैं। घर में हर जगह देख लीं। वह आस-पड़ोस में भी पता करने चली गई। घर में पति और तीनों बच्चे भी घबरा गए। हे भगवान ! मां अस्सी साल की है। उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता, आखिर कहां जा सकती हैं, अचानक उन्हें क्या हो गया, फोन पर भी जान-पहचान वालों से पूछताछ शुरू हो गई।

पड़ोस के कुछ लोग घर पर आ गए और मां जी के बारे में बातें करने लगे। घर में शोरगुल होने लगा। तभी सबसे छोटा बेटा जो सात-आठ साल का था, सबके बीच में कहने लगा-आप लोग बेकार में परेशान हो रहे हैं, मम्मी को तो पता है दादी कहां जा सकती है, क्योंकि मम्मी ही तो उन्हें पता बताती रहती है। कभी आश्रम जाने को कहती है, कभी मंदिर, कभी तीरथ, कभी बुआ के घर। अचानक ही घर में ऐसी खामोशी छा गई, मानो घर नहीं कोई वीराना हो।

© सुषमा सिन्हा, वाराणसी 

ईमेल- ssinhavns@gmail.com

 आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-

पांच लघुकथा संग्रह

1. औरत (2004)

2. राह चलते (2008)

3. बिखरती संवेदना (2014)

4. एहसास (2017)

5. कथा कहानी (2023)

अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है। 

अपनी सिद्ध लेखनी से सुषमा जी जीवन के अनछुए पहलुओं पर लिखती रही हैं और लघु कथा विधा को और अधिक समृद्धशाली कर रही हैं लेखिका और उनके लेखन, शिक्षा और सम्मान के बारे में जानने के लिए यहाँ  क्लिक करें |

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साझा पसंद (लघुकथा) - लवकुश कुमार

 आपसे जुड़कर, आपके साथ काम करके मुझे सच में बहुत ही सुखद व गर्व का अनुभव होता है, दामिनी ने मुस्कुराते हुए सौम्यता के भाव के साथ कहा।

धन्यवाद, मुझे भी खुशी है एक मेहनती और नेकदिल दोस्त और उत्साही रचनाकर मिलने की, आपको क्या-२ बेहतरी महसूस हो रही है, दामिनी? उत्साह से भरे हुए प्रत्यक्ष ने उत्सुकता से पूछा।

दामिनी- मैं आपसे कितना कुछ सीखती हूं, चाहे वो लेखन के विषय में हो या गणित या जीवन का व्यावहारिक ज्ञान।

प्रत्यक्ष- दामिनी आप मुझसे सीख पायी,  इसके लिए मुझे खुशी है, इसके लिए आपको खुद की संगति और पसंद पर गर्व करना चाहिए।

दामिनी- आप ऐसा क्यों कह रहे है? 

प्रत्यक्ष- अगर आप डाक्टर साहब से न जुड़ी होती तो न हमें यह साझा मंच मिलता, न आप मुझसे मिल पाती,  मेरी-आपकी साझा पसंद ने ही हमें मिलाया है और  मेरी समझ और ज्ञान आपके काम आ रही हैं।

बिल्कुल सही, संयत आवाज और दामिनी की आंखों की चमक, उसके मन की स्पष्टता को दर्शा रहीं थीं।

©लवकुश कुमार

लेखक भौतिकी में  परास्नातक हैं और उनके लेखन का उद्देश्य समाज की उन्नति और बेहतरी के लिए अपने विचार साझा करना है ताकि उत्कृष्टता, अध्ययन और विमर्श को प्रोत्साहित कर देश और समाज के उन्नयन में अपना बेहतर योगदान दिया जा सके, साथ ही वह मानते हैं कि सामाजिक विषयों पर लेखन और चिंतन शिक्षित लोगों का दायित्व है और उन्हें दृढ़ विश्वास है कि स्पष्टता ही मजबूत कदम उठाने मे मदद करती है और इस विश्वास के साथ कि अच्छा साहित्य ही युवाओं को हर तरह से मजबूत करके देश को महाशक्ति और पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाने मे बेहतर योगदान दे पाने मे सक्षम करेगा, वह साहित्य अध्ययन को प्रोत्साहित करने को प्रयासरत हैं, 

जिस तरह बूँद-बूँद से सागर बनता है वैसे ही एक समृद्ध साहित्य कोश के लिए एक एक रचना मायने रखती है, एक लेखक/कवि की रचना आपके जीवन/अनुभवों और क्षेत्र की प्रतिनिधि है यह मददगार है उन लोगों के लिए जो इस क्षेत्र के बारे में जानना समझना चाहते हैं उनके लिए ही साहित्य के कोश को भरने का एक छोटा सा प्रयास है यह वेबसाइट ।


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इंसानियत (लघुकथा) - सुषमा सिन्हा

इंसानियत

गांव की कच्ची-पक्की सड़कें, ऊपर से बरसात का मौसम। जहां-तहां फिसलन और गड्ढे। वह ग्रामीण हाथ में छाता लिये जल्दी में कहीं जा रहा था।

अचानक से एक बाइक ठीक उसके बगले से गुजरी और देखते ही देखते पलट गयी। बाइक सवार लड़का हेलमेट में था, वरना बड़ी घटना घट सकती थी। बाइक के नीचे से वह खुद को निकालने का प्रयास करने लगा, किन्तु पैर में चोट आने की वजह से वह ऐसा नहीं कर पा रहा था। मदद के लिए आवाज देने लगा क्योंकि दो बाइक सवार एक साथ आते हुए दिखे, किन्तु वे दोनों बाइक सवार आगे जाकर रूके सो रुके ही रह गये।ग्रामीण से रहा नहीं गया। वह तेज चाल से चलते हुए घायल लड़के तक
पहुंचा और बड़ी मुश्किल से उसे बाहर निकालने में सफल हुआ। लड़का
जैसे-तैसे लड़खड़ाता हुआ खड़ा होकर उस ग्रामीण के प्रति कृतज्ञता प्रकट
करते हुए धन्यवाद बोला। फिर पलटकर सामने देखा। एक तरफ इंसानियत
जिन्दा थी तो दूसरी तरफ दम तोड़ रही थी। वे दोनों बाइक सवार अब तक
उसकी वीडियो बनाने में व्यस्त दिख रहे थे।

© सुषमा सिन्हा, वाराणसी 

ईमेल- ssinhavns@gmail.com

 आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-

पांच लघुकथा संग्रह

1. औरत (2004)

2. राह चलते (2008)

3. बिखरती संवेदना (2014)

4. एहसास (2017)

5. कथा कहानी (2023)

अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है। 

अपनी सिद्ध लेखनी से सुषमा जी जीवन के अनछुए पहलुओं पर लिखती रही हैं और लघु कथा विधा को और अधिक समृद्धशाली कर रही हैं लेखिका और उनके लेखन, शिक्षा और सम्मान के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक  करें |

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हंसी (लघुकथा) - सुषमा सिन्हा

सात वर्षीय सोनू पढ़ रहा था कि अचानक वह कहने लगा, पापा आप मम्मी के बारे में एक बात सुनेंगे तो आपको हंसी आ जायगी। पापा ने भी उसी भोलेपन से पूछा, बताओ, मम्मी ऐसा क्या करती है कि तुम्हें हंसी आती है और मुझे भी हंसी आ जायगी। अब वह पापा के. और करीब आकर कहने लगा, जानते हैं पापा, मैं जब भी मम्मी के साथ मन्दिर जाता हूं तो देखता हूं । मम्मी भगवान जी के सामने एक थाली में लड्डू-पेड़े, फल, सब रखकर थोड़ी देर आंखें बंद कर लेती है फिर उसे उठा लेती है और कहती है कि भगवान जी ने खा लिया। उसके बाद वही लड्डू-पेड़े मुझे देती है कि प्रसाद खा लो, लेकिन पापा मैं हमेशा काउण्ट करता हूं।

भगवान जी एक भी फल-मिठाई नहीं खाते हैं। भगवान जी बोलते नहीं हैं, लेकिन मम्मी पता नहीं कैसे सुन लेती है। मांगते भी नहीं, तो भी मम्मी उन्हें लड्डू-पेड़ा देती है। खाते भी नहीं, परन्तु कहती है खा लिये। दादी तो बोलती है, सुनती भी है, मांगती भी है, उन्हें भूख भी लगती है, लेकिन मम्मी को जल्दी सुनायी ही नहीं देता। अब बताइये पापा, मम्मी सबकुछ उल्टा-पुल्टा करती है कि नहीं। इतना कहने के बाद सोनू, पापा के मुख को गौर से देखने लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि पापा को हंसी क्यों नहीं आ रही है।

© सुषमा सिन्हा, वाराणसी 

ईमेल- ssinhavns@gmail.com

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1. औरत (2004)

2. राह चलते (2008)

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सही दरवाजा (लघुकथा) - सौम्या गुप्ता

सहर्ष और प्रतीक्षा चाय के ढाबे पर बैठे हुए चाय की चुस्कियां ले रहे थे तभी सहर्ष ने कहा, पता है प्रतीक्षा आपसे पहले मैंने अपने कई मित्रों और परिचितों से मेरी पत्रिका के लिए लेख लिखने का अनुरोध किया, कुछ तो अच्छे पदों पर है और अच्छे संस्थानों से भी पढ़े हुए भी है पर किसी ने यह अनुरोध नहीं स्वीकार किया, किसी ने समय का बहाना बनाया किसी ने दूसरे बहाने बनाए और आपने मेरे एक बार कहने पर ही अपने लेखों को प्रकाशन हेतु देना शुरू कर दिया।

प्रतीक्षा ने कहा, सहर्ष दरअसल बात यह नहीं है कि आपने इतने लोगों से कहा, ये कुछ गलत दरवाजे पर दस्तक देने जैसा है, आपने सही दरवाज़े पर दस्तक दी इसीलिए आपको अपनी पत्रिका के लिए लेखिका भी मिल गई।

अब तो आपकी पत्रिका के लिए कितने ही लेखक और लेखिकाओं ने अपनी रचनाएं देनी शुरू कर दी है।

सहर्ष ने कहा, आप सही कह रही हो प्रतीक्षा, मैंने ही सही दरवाजे पर दस्तक नहीं दी, आज आप और दूसरे रचनाकार मेरी पत्रिका के लिए लिख रहे हो और इससे पहले भी जो लोग कर सकते थे, जिनको मैं खुद को अभिव्यक्त करने का मौका देना चाहता था, उन्होंने नहीं लिखा।

प्रतीक्षा ने कहा, आप सही कह रहे हैं, लेखन के लिए लेखकों से कहना ही बेहतर है, बजाय इसके कि हम नये लोगों को लेखक बनाने का प्रयास करे।

सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |


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सौदा (लघुकथा) - सुषमा सिन्हा

लड़का- मैं तुम्हें बेहद पसंद करता हूं। तुम जो चाहो ! जैसा चाहो ! मैं

करने को तैयार हूं, बस तुम शादी के लिए हां कर दो। लड़की- तुम्हें पता है न, मैं घर की अकेली लड़की हूं, दो भाई हैं बस कहने भर को। शायद ही हमारी खोज-खबर लेते हैं। मेरी नौकरी और पापा के पेंशन से घर चल रहा है। तुम्हारे घर वालों को हमारी शादी से कोई एतराज तो नहीं ? लड़का-अरे बिल्कुल नहीं।

मेरी मां तो कहती है, जो तेरी पसन्द वही मेरी पसन्द । अब बताओ कब

आऊं बारात लेकर। लड़की- एक खास बात और कहनी है, वह यह कि मेरी मां, मेरी जिम्मेदारी है। इसलिए मैं अपनी विधवा मां को नहीं छोड़ सकती। मैं उसे वचन दी हूं। इसके लिए तैयार हो ! तभी शादी सम्भव होगी। बोलो वचन

देते हो ? लड़का उलझन में पड़ गया। वह सोचने लगा जैसे एक म्यान में दो तलवारें, नहीं रह सकतीं, ठीक वैसे ही एक ही घर में लड़के की मां और लड़की की मां का साथ रहना मुश्किल है।

ऐसे भी मैंने अपनी मां को तो कुछ ऐसा-वैसा वचन दिया नहीं हूं।

उसने कहा ठीक है। मैं तुम्हारे वचन का मान रखूंगा। सचमुच शादी के बाद ऐसा ही हुआ। लड़की की मां घर में, लड़के की मां वृद्धाश्रम में।

© सुषमा सिन्हा, वाराणसी 

ईमेल- ssinhavns@gmail.com


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धमाका (लघुकथा) - सुषमा सिन्हा

मां और शान्ति को लेकर आये दिन घर में कलह होता रहता। बहू किसी भी हाल में मां के साथ रहने को तैयार न थी। महेश अपनी तरफ से समझाने का पूरा प्रयास करता, परन्तु सब व्यर्थ । घर बड़ा था फिर भी मां के लिए जगह न थी। बेचारा बुझे मन से मां को वृद्धाश्रम भेजने को राजी हो गया। मां खुद को बिलकुल असहाय समझती। उसके पास जो कुछ भी था, सब बेटे को देकर पहले ही खाली हो चुकी थी। एक घर बचा था, उसमें भी उसके लिए एक कोना भी न था, जहां वह सुकून से रह सके। क्या करती, महेश इकलौटा बेटा था। काफी समय के बाद उसे अपनी एक पुरानी सहेली से मुलाकात हो गयी।

सहेली शान्ति को तंज कसने लगी-कालेज-स्कूल के दिनों में नारी सशक्तीकरण और महिला उद्धार जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाली को क्या हो गया है ? नारी के हक में लड़ने वाली आज खुद इतनी कमजोर हो गयी ? सहेली, शान्ति का हाल समाचार जानने के बाद ऐसा बोल दी। परन्तु शान्तिअपने नामानुसार सब कुछ सुनकर भी शान्त रही। एक दिन बेटा, मां के पास आकर बिना नजरे मिलाये कहा-मां मैं कुछ दिनों से तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। मां पूरे दृढ़ निश्चय के साथ सर उठाकर कहने लगी-बेटा पहले मेरी बात सुन लो। ऐसा है कि मैं तुमसे पहले यह बात परिवार और पड़ोस में बता चुकी हूं, आज, तुमसे कह रही हूं। परन्तु घबड़ाना मत, मैं कुछ मांग नहीं रही। बस इतना कहना चाहती हूं कि, मैं इस घर में किरायेदार लगाने वाली हूं। अगले महीने घर खाली कर दो ? महेश सन्न रह गया, जिस मां में वह सरस्वती-लक्ष्मी का रूप देखता आया था, आज साक्षात् काली को देख रहा था।

© सुषमा सिन्हा, वाराणसी 

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1. औरत (2004)

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