अपने पराए के नाम पर मरने-मारने वाले.... बहादुर है और बिना अपना हित-अहित देखे सच का समर्थन करने वाले... बेवकूफ... फिर लोग कहते हैं कि दुनिया में इतनी तकलीफ क्यों है....गरीब और गरीब क्यों होता जा रहा और अमीर और अमीर क्यों होता जा रहा !
- लवकुश कुमार
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शुभकामनाएं
ऊपर की कमाई से कोठियां खड़ी करने वाला रिश्तेदार समझदार और काबिल, एक नंबर की कमाई से जीवन जीने वाला भोला और कमज़ोर फिर लोग कहते हैं कि अंधे के हाथ बटेर कैसे लग गई !
- लवकुश कुमार
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शुभकामनाएं
पत्नी और माँ के बीच होते झगड़े से तंग आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा| सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला- "बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी|"
"बहू बेटी बन सकती है?" पूछ अपनी दुल्हन से|" माँ ने भौंह को चढ़ाते हुए कहा|
"हाँ, क्यों नहीं?" आश्वस्त हो बेटा बोला|
"बहू तो बन नहीं पा रही, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह|" माँ ने गुस्से से जवाब दिया|
"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ?" सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली|
"बहू तो अच्छी है, पर बेटी नहीं बन सकती|"
"माँजी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ| आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं|"
"मेरे सास रूप से जब तुम्हारा यह हाल है, माँ बन गयी तो तुम मेरा जीना ही हराम कर देगी।" सास ने नहले पर दहला दे मारा|
"कहना क्या चाह रही हैं आप?" अब भौंह तिरछी करने की बारी बहू की थी|
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा, या कभी कहीं जाने से रोका!" सास ने सवाल छोड़ा|
"नहीं तो !" छोटा-सा ठंडा जवाब मिला|
बेटा उन दोनों की स्वरांजली से आहत हो बालकनी में पहुँच गया|
"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा| न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ|" उसे घूरती हुई सास बोली|
"नहीं माँजी, नमक ज्यादा होने पर भी आप सब्जी खा लेती हैं!" आँखें नीची करके बहू बोली|
"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है| माँ बन, सुमी जैसा व्यवहार तुमसे किया, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी।" बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।
कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे| चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था|
"बस करिए माँ! मैं समझ गयी| मैं एक अच्छी बहू ही बनके रहूँगी|" सास के जरा करीब आकर बहू बोली|
"अच्छा!"
"मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं| सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया था|"
"सुनी क्यों! यदि सुनी भी तो गुनी क्यों?"
बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया|
"गलती हो गई माँ! आज से उन पूर्वाग्रह रूपी झाड़ियों को समूल नष्ट करके, अपने दिमाग में प्यार का उपवन सजाऊँगी| आज से क्यों, अभी से| अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का ?" बहू ने मुस्कुराकर कहा |
"दाल भरी पूरी..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।" कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल होंठों पर फैल गई|
धूप देख कली मुस्कुराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गयी| कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंकझोंक में बदल चुकी थी|
सास फिर थोड़ी आँखें तिरछी करके बोली- "बना लेगी...?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न!" मुस्कुराकर चल दी रसोई की ओर|
बेटा मुस्कुराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी|"
माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, जरूर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न|"
© सविता मिश्रा 'अक्षजा'
ईमेल-2012.savita.mishra@gmail.com
अक्षजा जी को पढ़ना संवेदना जगाता है और स्पष्टता से भर देता है, आपने अपनी रचनाओं से मानवीय रिश्तों, संघर्षों, विरोधाभासों प्रकाश डालते हुए या कहें की ध्यान खींचते हुए एक शांतिमय और समृद्ध जीवन / दुनिया के लिए तरह तरह की विधाओं में साहित्य रचकर साहित्य कोश में अमूल्य योगदान दिया है, आपने लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, पत्र, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हाइकु-चोका आदि विधाओं में ढेरों रचनाएं साहित्य कोश को अर्पण की हैं, आपकी 'रोशनी के अंकुर' एवं 'टूटती मर्यादा' लघुकथा संग्रह तथा ‘सुधियों के अनुबंध’ कहानी संग्रह के साथ अस्सी के लगभग विभिन्न विधाओं में साझा-संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित हैं और 'खाकीधारी' 2024{लघुकथा संकलन} 'अदृश्य आँसू' 2025 {कहानी संकलन} 'किस्से खाकी के' 2025 {कहानी संकलन} 'उत्तर प्रदेश के कहानीकार' 2025 {कथाकोश} का सम्पादन भी किया, आप लघुकथा/समीक्षा/कहानी/व्यंग्य / कविता विधा में कई बार पुरस्कृत हैं| आदरणीय लेखिका के बारे में और इनकी अन्य रचनाओं, योगदान, सम्प्रतियों के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें|
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शुभकामनाएं
दीपक जी बाजार में मिले तो पीछे ही पड़ गए "आज तो चलना ही पड़ेगा, मेरा मकान देखने, बहुत इन्ट्रेस्ट से बनवाया है मैंने।" दीपक जी मेरे बॉस रह चुके हैं, अतः अनिच्छा से ही सही, जाना पड़ा।
मकान वाकई बहुत सुन्दर बनाया गया था। सुन्दर बगीचे वाला कम्पाउण्ड, अन्दर हर कमरे में चमचमाते मार्बल के फर्श, कीमती फर्नीचर, दीवारों पर महँगे वालपेपर्स, बेहद सुन्दर फॉल्स सीलिंग्स, एक्वेरियम, प्योर लेदर के सोफे, चमचमाते वॉशरूम देखकर मेरे मुख से अपने आप 'वाह' निकल गया और मन में ऐसा ही मकान बनाने की इच्छा बलवती होने लगी।
चाय पानी के बाद हम बाहर आए तो दीपक जी एकाएक बोले, "अरे तुमने बाईक उधर दाईं तरफ क्यों खड़ी की ? उधर वालों से हमारा झगड़ा है।" फिर घूमकर बाईं तरफ के मकान की ओर देखा तो पत्नी पर चिल्ला पड़े "नीमा, तुम्हारे सुखाए कपड़े उड़कर उस तरफ जा रहे हैं, संभालो उन्हें।" फिर कुछ संकोची स्वर से बोले "ये दाएं तरफ वाले भी ऐसे ही हैं, इनसे भी बोलचाल बन्द है हमारी। नब्बे लाख का मकान जो बना लिया है मैंने, नाते रिश्तेदार भी आज तक देखने नहीं आए, सब जलते हैं साले मुझसे। खैर, कैसा लगा मेरा बंगला ?" "बहुत खूबसूरत, बहुत शानदार" मैंने कहा। "तुमने एक बात नोट की, मैंने हर कमरे, यहाँ तक कि बरामदे में भी बिजली कनेक्शन के कई-कई प्वाइंट लगवाए हैं, ताकि किसी को किसी इन्स्ट्रुमेण्ट के चार्जिंग में कोई दिक्कत न हो, है न दूरदर्शी सोच मेरी।"
"बिल्कुल सही" मैंने कहा "काश बिजली के कनेक्शंस के साथ आपने सम्बन्धों के कनेक्शन भी जोड़े रखे होते तो डिस्चार्ज पड़े रिश्ते भी चार्ज हो जाते" कहना चाहता था मैं, पर कह न सका।
© संतोष सुपेकर ( सातवें पन्ने की खबर से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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शुभकामनाएं
"क्या पापा ?" विवेक अचकचा कर बोला, "आप, बस स्टैण्ड से बोल रहे हैं? मगर आप लोग तो ट्रेन से आ रहे थे न ?"
"ट्रेन लेट हो गई थी बेटा, पर बाकी बातें बाद में करेंगे।" परमानन्दजी का हकबकाया-सा स्वर था, "तू तो जल्दी से हमको लेने बस स्टैण्ड पर आ जा, हम यहाँ खड़े हैं एटीएम के पास।"
विवेक हड़बड़ाया-सा बस स्टैण्ड पहुँचा तो परमानन्दजी ने सारी बात बताई, "बेटा, हम सब तो ट्रेन में अपने कोच में सो रहे थे, तभी बीना स्टेशन पर जोरदार हंगामा होने लगा, ढेर सारे जवान लड़के, जो किसी नौकरी की परीक्षा के लिए आये थे, जबरदस्ती हमारे कोच में घुस आये, सोये हुए यात्रियों को उठाने लगे, उनसे मार-पीट, झगड़ा करने लगे। कोच में सवार महिलाओं, लड़कियों से छेड़छाड़ करने लगे। हम सभी बेहद घबरा गये थे, तेरी बहन उस समय बाथरूम गयी हुई थी। हमारा दिमाग चला, उसे फोन कर वहीं से बाहर निकलने को बोला, हम दोनों भी जैसे-तैसे बाहर निकले, बस स्टैण्ड पहुँचे और बस पकड़कर यहाँ तक आये, पर पता नहीं...", परमानन्दजी ने जोरदार झुरझुरी ली, "बेचारे बाकी पैसेंजर्स के साथ क्या घटी होगी ?"
"ओऽऽह" घटना सुनकर विवेक के मुँह से ऐसे निकला जैसे गुब्बारे से हवा और उस पर हावी होने लगा चार साल पहले का अतीत, जब उसने भी बेरोजगारों की फौज के साथ मिलकर ऐसी ही एक ट्रेन में जोरदार हंगामा कर यात्रियों को आतंकित और त्रस्त कर दिया था। तब तो वह बच गया था पर आज खुद को कठघरे में पा रहा था।
© संतोष सुपेकर ( मधुरिमा (दैनिक भास्कर) से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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शुभकामनाएं
कड़ाके की सर्दी की एक सुबह, रामकिशन जब घर लौटे तो देखा, बेटी अभी भी सो रही है, “अरे” उसे झिंझोड़ते हुए वे कुछ क्रुद्ध स्वर में बोले, “अनु, अभी तक सो रही है, साढ़े सात बज गये हैं, स्कूल नहीं जाना क्या?”
“क्या बाबा, आप भी ! सोने दो न, बोहोत ठण्ड है, आज से हमारे स्कूल का टाइम भी नौ बजे हो गया है।” रजाई में से अनु का उनींदा स्वर सुनाई दिया।
“और तू राजू” वे फिर छोटे भाई की ओर मुड़े, “तू भी अब तक पड़ा हुआ है, तेरा दफ्तर भी क्या…”
“हाँ भैया, कड़क ठण्ड के कारण आज से हमारा ऑफिस भी ग्यारह बजे खुलेगा।” राजकिशन का एक विजेता-सा स्वर रजाई में से उभरा।
“ओऽऽह” रामकिशन फीकी-सी मुस्कान से बड़बड़ाये, “तो इस जमा देने वाली सर्दी में सबके देर तक सोने का इन्तजाम हो गया है, सिवाय मेरे... खेत पर तो बिजली रात डेढ़ बजे ही आती है, चाहे कितनी भी कड़ी ठण्ड क्यों न पड़े, मुझे तो उठकर जाना ही है खेत पर, क्या करूँ किसान हूँ न…” उनींद और विजेता स्वर के बाद यह एक मजबूर नहीं, एक मजबूत स्वर था।
© संतोष सुपेकर (तरंग नई दुनिया, इंदौर से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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कुछ दिन पहले टेलीविजन पर, अशान्त सरहदों पर मची मार-काट,
खून-खराबे के मध्य एक लोमहर्षक दृश्य देखा जो न सिर्फ याद रहा बल्कि एक
नयी चिन्तायुक्त सिहरन को भी जन्म दे गया...
इस दृश्य में युद्धग्रस्त, आतंकग्रस्त, शरणार्थी समस्याग्रस्त मुल्क का
एक विवश-अतिविवश पिता अपने छोटे बच्चे को सरहद की टूटी हुई बाड़ में
से पड़ोसी मुल्क की सरहद में छोड़ रहा था। ऐसा करते हुए उसकी आँखों में
प्रलय के आँसू थे। पिता से, मुल्क से बिछड़ते हुए नन्हे बालक का चेहरा ऐसा
हो रहा था कि क्रूरतम् व्यक्ति भी देखे तो फफककर रो पड़े...
ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई अपने जान से प्यारे बच्चे को किनारे से,
उफनते सागर में धकेल रहा हो, उम्मीद के खिलाफ इस उम्मीद में कि उफनते
सागर में तो कोई सम्भावना है बच्चे के बच जाने की, लेकिन किनारे पर मची
मार-काट, रक्तपात में तो उसका मारा जाना अवश्यम्भावी है।
हाहाकारी और अशान्त ऐसी कई सरहदें हैं दुनिया में ! मानवता की
कर्णबेधी और हृदयबेधी चीत्कार से उपजी मेरी इस चिन्तायुक्त सिहरन में शामिल
है, इन दृश्यों के आम होते जाने की चिन्ता...
© संतोष सुपेकर (नवनीत (मुम्बई) से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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शुभकामनाएं
लगभग रोज सुबह अपने शानदार बंगलो के शानदार बगीचे में घूमते हुए वे देखते थे सामने रोड पर खड़े, शायद पास की तंग बस्ती के रहने वाले बाप बेटे को। एक व्यक्ति अपने छोटे, सात-आठ वर्षीय बच्चे को लेकर उनके घर के सामने खड़ा रहता था, स्कूल बस के इंतज़ार में।
बच्चा उनके आलीशान मकान की ओर देखकर लगभग रोज एक जैसी बात करता जो उनकी श्रवण शक्ति की सीमा में रहती, "पापा हमारा भी ऐसा बंगला होगा एक दिन। होगा न पापा?"
"पापा हमारे पास भी ऐसी कार होगी। ये..." बच्चा हाथ चौड़े करता, "लम्बी, बड़ी सी, चमचमाती सी. होगी न पापा?"
"पापा हमारे घर के बाहर भी ऐसा बगीचा होगा जिसमें सुन्दर पौधे, ऊँचे-ऊँचे पेड़ होंगे, होंगे न पापा?"
"पापा... पापा... हमारा भी.." "पापा हमारा भी..."
और उसका गरीब पिता बुझे मन से भोले भाले बेटे की हर बात का "हाँ हूँ, होगा बेटा, जरूर होगा" कहकर जवाब देता रहता।
अपने शानदार बगीचे के पौधों में उगती कोपलें तो वे रोज देखते ही थे, बाहर सड़क पर भी रोज कुछ कोपलें देखते। कुछ भोले से सपनों की कोपलें, उगते हुए और मुरझाते हुए।
© संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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शुभकामनाएं
"आपको इतने ढेर सारे पुरस्कार, मेडल मिले हैं इस खेल में। आप पर बायोपिक बन गई।"
मैंने उस खिलाड़ी से पूछा, "अब आगे आपके क्या सपने हैं?"
"सपने!" सोचते हुए उपेक्षित खेल की वह अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी, बोली, "सपना तो एक ही दिखता है अब। काश, मैं सुंदर होती और बजाय खिलाड़ी के फिल्म एक्ट्रेस होती" बोलते हुए उसने उत्तेजना से हवा में अपना मुका तो लहराया लेकिन उसके चेहरे की चमक फीकी पड़ गई और पीछे शेल्फ में रखे, उसे मिले ढेरों स्मृति चिन्ह भी द्युतिहीन लगने लगे, "क्योंकि मुझे तो इस खेल से कुछ विशेष नहीं मिला, आज भी मामूली नौकरी करती हूँ, लेकिन मेरे खेल जीवन पर जब फिल्म बनी तो उसमें मेरा किरदार निभाने वाली अभिनेत्री ने बहुत कमा लिया।"
© संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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"एँ! ये कैसा ताला?" सस्ता ताला खरीदने पटड़ी की एक दुकान पर गया और एक ताले को जब हाथ में लिया तो चौंक गया मैं, "दवाओ तो बन्द। और हाथ से खींचो तो खुल जाए? बिना चाभी के ही? ये कैसा ताला है भाई?"
"अरे वो आप छोड़ दो साब।" दुकानदार खिसियाता सा बोला, "वो ढेर मत देखो। वो माल भी आपके लिए नहीं है।" और उसने बाई तरफ इशारा किया, "आप इधर वाले ताले देखो। ये हैं आपके लिए।"
"पर ये खराब ताले..? यहाँ रखे ही क्यों हैं? ये भी बिकते हैं क्या?"
"हाँ बिल्कुल बिकते हैं साब। पीछे वाले रोड़ पर गाँव से आए हुए मजदूरों की कच्ची बस्ती बनी है। वो ही ले जाते हैं ये बिना चाभी के ताले! उनकी जिंदगी में गम के बड़े बड़े ताले तो हैं पर खुशियों की छोटी सी चाभी नहीं।"
"अरे वा! तुम तो फिलॉसॉफर हो।" मैं कुछ गम्भीर तो हुआ लेकिन फिर हँस पड़ा, "पर ये ताले तो खुल जाते हैं बिना चाभी के ही? फिर इनका मतलब ही क्या?"
"उनको मतलब है साब।" दुकानदार का स्वर जैसे किसी गहरे कुएँ से आता लगा तो अब मेरी हँसी भी कुएँ में गिरी किसी अंगूठी सी गायब हो गई, "बो गरीब काम पर जाते हैं तो ऐसे ही टूटे तालों को लगाकर। उनके पास ऐसा होता ही क्या है जो एक चोर के पास नहीं हो?"
- संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )
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