Article

खुलती गिरहें ( कहानी ) - सविता मिश्रा 'अक्षजा'

पत्नी और माँ के बीच होते झगड़े से तंग आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा| सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला- "बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी|"
"बहू बेटी बन सकती है?" पूछ अपनी दुल्हन से|" माँ ने भौंह को चढ़ाते हुए कहा|
"हाँ, क्यों नहीं?" आश्वस्त हो बेटा बोला|
"बहू तो बन नहीं पा रही, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह|" माँ ने गुस्से से जवाब दिया|

"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ?" सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली|
"बहू तो अच्छी है, पर बेटी नहीं बन सकती|"
"माँजी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ| आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं|"
"मेरे सास रूप से जब तुम्हारा यह हाल है, माँ बन गयी तो तुम मेरा जीना ही हराम कर देगी।" सास ने नहले पर दहला दे मारा|
"कहना क्या चाह रही हैं आप?" अब भौंह तिरछी करने की बारी बहू की थी|
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा, या कभी कहीं जाने से रोका!" सास ने सवाल छोड़ा|
"नहीं तो !" छोटा-सा ठंडा जवाब मिला|
बेटा उन दोनों की स्वरांजली से आहत हो बालकनी में पहुँच गया|

"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा| न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ|" उसे घूरती हुई सास बोली|
"नहीं माँजी, नमक ज्यादा होने पर भी आप सब्जी खा लेती हैं!" आँखें नीची करके बहू बोली|

"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है| माँ बन, सुमी जैसा व्यवहार तुमसे किया, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी।" बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।

कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे| चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था|

"बस करिए माँ! मैं समझ गयी| मैं एक अच्छी बहू ही बनके रहूँगी|" सास के जरा करीब आकर बहू बोली|
"अच्छा!"
"मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं| सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया था|"

"सुनी क्यों! यदि सुनी भी तो गुनी क्यों?"

बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया|

"गलती हो गई माँ! आज से उन पूर्वाग्रह रूपी झाड़ियों को समूल नष्ट करके, अपने दिमाग में प्यार का उपवन सजाऊँगी| आज से क्यों, अभी से| अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का ?" बहू ने मुस्कुराकर कहा |

"दाल भरी पूरी..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।" कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल होंठों पर फैल गई|

धूप देख कली मुस्कुराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गयी| कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंकझोंक में बदल चुकी थी|

सास फिर थोड़ी आँखें  तिरछी करके बोली- "बना लेगी...?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न!" मुस्कुराकर चल दी रसोई की ओर|

बेटा मुस्कुराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी|"

माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, जरूर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न|" 

© सविता मिश्रा 'अक्षजा' 

ईमेल-2012.savita.mishra@gmail.com


अक्षजा जी को पढ़ना संवेदना जगाता है और स्पष्टता से भर देता है, आपने अपनी रचनाओं से मानवीय रिश्तों, संघर्षों, विरोधाभासों प्रकाश डालते हुए या कहें की ध्यान खींचते हुए एक  शांतिमय और समृद्ध जीवन / दुनिया के लिए तरह तरह की विधाओं में साहित्य रचकर साहित्य कोश में अमूल्य योगदान दिया है, आपने  लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, पत्र, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हाइकु-चोका आदि विधाओं में ढेरों रचनाएं साहित्य कोश को अर्पण की हैं, आपकी 'रोशनी के अंकुर' एवं  'टूटती मर्यादा' लघुकथा संग्रह तथा  ‘सुधियों के अनुबंध’ कहानी संग्रह के साथ  अस्सी के लगभग विभिन्न विधाओं में साझा-संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित हैं और 'खाकीधारी'  2024{लघुकथा संकलन} 'अदृश्य आँसू' 2025 {कहानी संकलन} 'किस्से खाकी के' 2025 {कहानी संकलन}  'उत्तर प्रदेश के कहानीकार' 2025 {कथाकोश} का सम्पादन भी किया, आप लघुकथा/समीक्षा/कहानी/व्यंग्य / कविता  विधा में कई बार पुरस्कृत हैं|  आदरणीय लेखिका के बारे में और इनकी अन्य रचनाओं, योगदान, सम्प्रतियों के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें|


अगर आपके पास भी कुछ ऐसा है जो लोगों के साथ  साझा करने का मन हो तो हमे लिख भेजें  नीचे दिए गए लिंक से टाइप करके या फिर हाथ से लिखकर पेज का फोटो  Lovekushchetna@gmail.com पर ईमेल कर दें

फीडबैक / प्रतिक्रिया या फिर आपकी राय, के लिए यहाँ क्लिक करें |

शुभकामनाएं