लड़का- मैं तुम्हें बेहद पसंद करता हूं। तुम जो चाहो ! जैसा चाहो ! मैं
करने को तैयार हूं, बस तुम शादी के लिए हां कर दो। लड़की- तुम्हें पता है न, मैं घर की अकेली लड़की हूं, दो भाई हैं बस कहने भर को। शायद ही हमारी खोज-खबर लेते हैं। मेरी नौकरी और पापा के पेंशन से घर चल रहा है। तुम्हारे घर वालों को हमारी शादी से कोई एतराज तो नहीं ? लड़का-अरे बिल्कुल नहीं।
मेरी मां तो कहती है, जो तेरी पसन्द वही मेरी पसन्द । अब बताओ कब
आऊं बारात लेकर। लड़की- एक खास बात और कहनी है, वह यह कि मेरी मां, मेरी जिम्मेदारी है। इसलिए मैं अपनी विधवा मां को नहीं छोड़ सकती। मैं उसे वचन दी हूं। इसके लिए तैयार हो ! तभी शादी सम्भव होगी। बोलो वचन
देते हो ? लड़का उलझन में पड़ गया। वह सोचने लगा जैसे एक म्यान में दो तलवारें, नहीं रह सकतीं, ठीक वैसे ही एक ही घर में लड़के की मां और लड़की की मां का साथ रहना मुश्किल है।
ऐसे भी मैंने अपनी मां को तो कुछ ऐसा-वैसा वचन दिया नहीं हूं।
उसने कहा ठीक है। मैं तुम्हारे वचन का मान रखूंगा। सचमुच शादी के बाद ऐसा ही हुआ। लड़की की मां घर में, लड़के की मां वृद्धाश्रम में।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
ईमेल- ssinhavns@gmail.com
आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-
पांच लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
5. कथा कहानी (2023)
अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है।
अपनी सिद्ध लेखनी से सुषमा जी जीवन के अनछुए पहलुओं पर लिखती रही हैं और लघु कथा विधा को और अधिक समृद्धशाली कर रही हैं लेखिका और उनके लेखन, शिक्षा और सम्मान के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें |
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शुभकामनाएं
मां और शान्ति को लेकर आये दिन घर में कलह होता रहता। बहू किसी भी हाल में मां के साथ रहने को तैयार न थी। महेश अपनी तरफ से समझाने का पूरा प्रयास करता, परन्तु सब व्यर्थ । घर बड़ा था फिर भी मां के लिए जगह न थी। बेचारा बुझे मन से मां को वृद्धाश्रम भेजने को राजी हो गया। मां खुद को बिलकुल असहाय समझती। उसके पास जो कुछ भी था, सब बेटे को देकर पहले ही खाली हो चुकी थी। एक घर बचा था, उसमें भी उसके लिए एक कोना भी न था, जहां वह सुकून से रह सके। क्या करती, महेश इकलौटा बेटा था। काफी समय के बाद उसे अपनी एक पुरानी सहेली से मुलाकात हो गयी।
सहेली शान्ति को तंज कसने लगी-कालेज-स्कूल के दिनों में नारी सशक्तीकरण और महिला उद्धार जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाली को क्या हो गया है ? नारी के हक में लड़ने वाली आज खुद इतनी कमजोर हो गयी ? सहेली, शान्ति का हाल समाचार जानने के बाद ऐसा बोल दी। परन्तु शान्तिअपने नामानुसार सब कुछ सुनकर भी शान्त रही। एक दिन बेटा, मां के पास आकर बिना नजरे मिलाये कहा-मां मैं कुछ दिनों से तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। मां पूरे दृढ़ निश्चय के साथ सर उठाकर कहने लगी-बेटा पहले मेरी बात सुन लो। ऐसा है कि मैं तुमसे पहले यह बात परिवार और पड़ोस में बता चुकी हूं, आज, तुमसे कह रही हूं। परन्तु घबड़ाना मत, मैं कुछ मांग नहीं रही। बस इतना कहना चाहती हूं कि, मैं इस घर में किरायेदार लगाने वाली हूं। अगले महीने घर खाली कर दो ? महेश सन्न रह गया, जिस मां में वह सरस्वती-लक्ष्मी का रूप देखता आया था, आज साक्षात् काली को देख रहा था।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
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शुभकामनाएं
अस्पताल के एक वार्ड में दो मरीज भर्ती थे। दोनों को एक ही बीमारी थी, दिल की। दोनों का छोटा-सा आपरेशन होने वाला था। एक जो जवान मरीज था, वह दर्द से कराह रहा था, छटपटा रहा था, बेचैनी महसूस कर रहा था। दूसरा मरीज जो अधेड़ उम्र का था वह एकदम शांत भाव से बिस्तर पर पड़ा था। जब दोनों का आपरेशन हो गया और एक नये वार्ड में लाया गया तो जवान मरीज ने पूछा-अंकल जी! क्या कल आपको दर्द नहीं हो रहा था?
आप बिल्कुल खामोश थे, जबकि मैं दर्द से तड़प रहा था।
अधेड़ शांत भाव से कहने लगा-दर्द तो मेरा भी असहाय था लेकिन तुम्हारे सामने तुम्हारे पिता जी थे, जो तुम्हें प्यार-दुलार के साथ बार-बार सांत्वना दे रहे थे। धैर्य बंधा रहे थे। वह काफी परेशान थे, तुम्हें बेचैन देखकर और तुम भी लाड़ लगा रहे थे। तुम्हारे विपरीत, मेरे बगल में बैठा मेरा बेटा झपकी ले रहा था। पिछली दो रातों से वह मेरी वजह से सोया नहीं था.मुझे अपने दिल से ज्यादा दिल के टुकड़े का ख्याल था तो मैं दर्द जाहिर कैसे
होने देता ? जवान का, एक पिता की महानता के आगे सिर झुक गया।
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शुभकामनाएं
आज अभय ने हमें लज्जित करने वाला काम किया है,अभय के दादा जी ने परिवार के सामने कहा।
दादी जी - अरे क्यों डांट रहे हो मेरे पोते को, आप बताइए तो कि इसने क्या किया है?
दादा जी - मैं इसे एक परिचित के घर ले गया था और मेजबान के पूछने पर कि खाने में क्या खाओगे? तो इसने कहा नमक- रोटी। वो क्या सोचेंगी कि इसको क्या यही खाना मिलता है घर में?
दादी जी - कोई बात नहीं, मेरा अभय आगे से ऐसा नहीं करेगा, अब मत डांटिये मेरे पोते को।
अभय ने विस्मित मन से सोचा कि माँ के व्यस्त होने पर घर में भी नमक रोटी खा लेता हूं, वहां अगर किसी की सहूलियत के लिए ये खाने को बोल दिया तो क्या गलत कह दिया? पर उत्तर न मिलने पर दादा जी की डांट से आहत हुआ अभय सुबकते हुए और यह सोचते हुए कि मैंने गलत क्या किया दूसरों की सहूलियत का ख्याल करके, वह सो गया।
सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |
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शुभकामनाएं
वह जगह शहर से थोड़ी हटकर थी, इसलिए कुछ सुनसान-सी थी। छिटपुट घर-मकान और गिनती की दुकान। बारिश तेज हो रही थी। एक लड़का पानी से बचने के लिए एक दुकान के छज्जे के नीचे जाकर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद दुकानदार ने कहा, बेटा जरा एक बगल होकर खड़े रहो, ग्राहकों को आने में परेशानी न हो। लड़के ने हंसते हुए कहा, इस मौसम में कौन आएगा, आपकी दुकान पर। दुकानदार ने छूटते ही बोला, जैसे तुम आ गए हो। ऐसे ही समय में तो लोग आश्रय ढूंढते हैं। आते हैं पानी से बचने के लिए, परन्तु उनमे से कुछ को यूं ही खड़ा रहकर पानी रुकने का आसरा देखना अच्छा नहीं लगता, सो दुकान के अन्दर बैठकर चाय पीते हुए, पानी थमने का इंतजार करते हैं। सचमुच एक बारगी पानी का बौछार तेज हो गया तो चार-पांच लोग एक साथ दुकान में चले आएं। फिर कुछ पल में ही अन्दर बैठकर चाय पीने लगे। लड़का एक नजर उस अनुभवी और समझदार दुकानदार की ओर देखा, फिर थोड़ा शर्माते हुए, एक कप चाय का आर्डर देकर दुकान के अन्दर बैठ गया।
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अम्मा की खांसी बढ़ती जा रही थी। ऐसे में ठंड के समय दमा की बीमारी और भी परेशान करती ही है। दूसरी तरफ यह भी सच था कि अम्मा की ना तो सही से देखभाल हो रही थी न ठीक से दवा-दारूही हो रही था। बहू तो अम्मा की खांसी से इतनी ऊब चुकी थी कि उनके लिए सबसे पीछे वाले कमरे में व्यवस्था कर दी थी। पति के पूछने पर कारण बताती हुई कहने लगी-क्या करूं, घर में चार लोग आते-जाते रहते हैं। ऐसे में अम्मा के कारण बड़ी असुविधा और शर्म-सी महसूस होती है। फिर मुझे भी रात को सोने में दिक्कत होती है। घर भर को असुविधा ना हो, इसलिए ऐसा की। घर में बच्चे-बड़े, सब टीवी, मोबाइल पर व्यस्त रहते। ऊपर से पीछे का एकान्त कमरा ! अम्मा की खांसी की आवाज किसी को ठीक से सुनाई ही नहीं देती थी। वह खांसते-खांसते हलकान भी हो जाती तो भी किसी को पता नहीं चल पाता। कभी-कभी पोता बिट्ट जो आठ वर्ष का था, दादी के पास आकर बैठता और बातें भी करता। दादी से पूछता-दादी तुम्हारी खांसी कब ठीक होगी? दादी उसके सर पर हाथ फेरती हई उसे प्यार करती हई कहती-यह बुढापे की बीमारी है। मेरे दम के साथ ही जाएगी। वह ठीक से दादी की बात नहीं समझ पाता और बदले में दादी को भी प्यार-दुलार करता हुआ वहां से चला जाता। एक दिन सचमुच दादी खांसी के साथ ही इस दुनियां से विदा ले ली। अगले साल जाड़े के मौसम में बिट्टू की मां खांसी की चपेट में आ गई। एक रात बिट्टू, मां से कहने लगा-मम्मी तुम खांसी वाले कमरे में पीछे जाकर क्यों नहीं सोती हो, तुम्हारी वजह से मैं ठीक से सो नहीं पाता।
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सुबह-सुबह बहू घर में हंगामा मचाई हुई थी। पता नहीं, अम्मा जी कहां चली गई हैं। घर में हर जगह देख लीं। वह आस-पड़ोस में भी पता करने चली गई। घर में पति और तीनों बच्चे भी घबरा गए। हे भगवान ! मां अस्सी साल की है। उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता, आखिर कहां जा सकती हैं, अचानक उन्हें क्या हो गया, फोन पर भी जान-पहचान वालों से पूछताछ शुरू हो गई। पड़ोस के कुछ लोग घर पर आ गए और मां जी के बारे में बातें करने लगे। घर में शोरगुल होने लगा। तभी सबसे छोटा बेटा जो सात-आठ साल का था, सबके बीच में कहने लगा-आप लोग बेकार में परेशान हो रहे हैं, मम्मी को तो पता है दादी कहां जा सकती है, क्योंकि मम्मी ही तो उन्हें पता बताती रहती है। कभी आश्रम जाने को कहती है, कभी मंदिर, कभी तीरथ, कभी बुआ के घर। अचानक ही घर में ऐसी खामोशी छा गई, मानो घर नहीं कोई वीराना हो।
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रजनी शर्मा बस्तरिया की कहानी “रोशनी के डोंगे” भारतीय लोकजीवन, विशेषतः छठ पर्व की आध्यात्मिक आभा और ग्रामीण संवेदना को अत्यंत काव्यात्मक भाषा में रूपायित करती है। यह कहानी मात्र एक पर्व का दृश्य नहीं रचती, बल्कि उसमें निहित नारी के तप, जिजीविषा, सौंदर्य और विश्वास की सांस्कृतिक गाथा प्रस्तुत करती है।
भावभूमि और संवेदना:
कहानी का आरंभ एक शहर की बालकनी से होता है — एक ऐसा स्थान जहाँ लेखक स्वयं को ‘देहाती अंदाज़’ में टिकाए हुए है। यही बालकनी ग्रामीण स्मृतियों और शहरी वास्तविकताओं के बीच संवेदनात्मक सेतु बन जाती है। कथा का परिवेश धीरे-धीरे छठ पर्व की प्रतीक्षा और उल्लास से भर उठता है — “कानों में छठ के गीत हक जमाती आ रही थी।” यह पंक्ति पूरे वातावरण में श्रद्धा और लोक-उत्सव की गंध बिखेर देती है।
प्रतीकात्मकता और बिंब-योजना:
कहानी की भाषा चित्रमयी है। लेखक ने रोशनी, धूप, सूरज, घाट, टिकुली, दीपशिखा, अंजोर आदि प्रतीकों के माध्यम से जीवन, संघर्ष और आशा की सततता को दिखाया है।
“चँदा टिकुली का डूबते सूरज से भिड़ंत होना” — यह दृश्य नारी-सौंदर्य और प्रकृति के संगम का अद्भुत बिंब है। “घाट पर रोशनी के डोंगे, और उम्मीद की पतवार” — यहाँ दीप सिर्फ़ पूजा का साधन नहीं, बल्कि जीवन-संघर्ष में उम्मीद का रूपक बन जाता है।
कहानी का शीर्षक “रोशनी के डोंगे” भी इसी प्रतीकात्मक अर्थ का विस्तार है — जीवन रूपी अंधकारमय सागर में तैरती विश्वास की ज्योति।
नारी और लोकजीवन:
लेखिका ने छठ पर्व को ‘व्रती साम्राज्ञियों’ का साम्राज्य कहा है। यह दृष्टि विशेष रूप से स्त्री-केन्द्रित है।
वे स्त्रियाँ केवल सजने-सँवरने वाली नहीं, बल्कि त्याग, अनुशासन और श्रद्धा की प्रतीक हैं। लेखक की दृष्टि में वे इस लोकविश्वास की असली वाहक हैं, जो अंधकार में भी अंजोर जगाती हैं।
शैली और शिल्प:
कहानी का शिल्प काव्यात्मक गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। भाषा में लय, ध्वनि, और दृश्यात्मकता है। “बादलों का टुकड़ा आकर मेरे पास लुढ़क जाता है”, “हवाएँ अखबार के बाल सँवारने की ज़िद करती हैं।”
ऐसे बिंब कहानी को संवेदना और सौंदर्य के सम्मिलन तक पहुँचा देते हैं।
विदुषी लेखिका रजनी जी ने ग्रामीण संस्कृति को आधुनिक नगर जीवन के संदर्भ में रखकर ‘सांस्कृतिक पुनर्स्मरण’ का प्रभाव उत्पन्न किया है।
अन्तर्निहित दर्शन:
कहानी अंततः उम्मीद, संघर्ष और जिजीविषा की कथा है।
छठ का पर्व यहाँ आस्था का सामाजिक रूपक है। ‘रोशनी के डोंगे’ — वे दीप हैं जो हर स्त्री अपने विश्वास से जलाती है, ताकि जीवन की अंधेरी लहरों में भी दिशा बनी रहे।
इसप्रकार, “रोशनी के डोंगे” एक संवेदना-संपन्न, सौंदर्यपूर्ण और प्रतीक-प्रधान कथा है, जिसमें लोक और शहरी जीवन के बीच आस्था की एक उजली लकीर खिंचती है।
रजनी शर्मा बस्तरिया ने इस कहानी में छठ पर्व की आत्मा, भारतीय नारी की सहनशीलता, और मनुष्य की जिजीविषा को बड़ी सहजता से शब्दों में बाँधा है। यह कहानी पाठक के भीतर भी एक दीप जलाती है —
“जुगजुगाता अंजोर…” —
यानी आशा की वह ज्योति, जो हर युग में, हर मन में, जलती रहनी चाहिए।
-डॉ. रौशन शर्मा.
दिल्ली विश्वविद्यालय
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आज शाम की वॉक पर शर्मा जी बड़े अनमने से चुप-चाप चल रहे थे। संग चल रहे गुप्ता जी ने इसे भांप लिया था ।
" क्या बात है शर्मा जी ! आज आप कुछ परेशान से लग रहे हैं ? बताइए ना कुछ हमारे लायक हो तो ,हम मदद के लिए तैयार हैं "।
शर्मा जी पहले तो बात को टालते रहे ,लेकिन कई बार कुरेदने पर कहने लगे " क्या बताऊं गुप्ता जी लगता है मैंने आपकी बात न मान कर बहुत बड़ी गलती की है ।
रैन्ट पर घर देने से पहले आपने चेताया था ,लेकिन मुझे लगा था कि घर लेने वाला लड़का पढ़ा-लिखा है । पैथोलॉजी लैब है उसकी ।अच्छी कमाई होती होगी । समय पर किराया मिलता रहेगा ,हमें और क्या चाहिए जात पात कोई मायने नहीं रखती मेरे लिए।"
"तो फिर कोई गड़बड़ कर दी क्या उसने" ।
" घर देने बाद हमें पता चला कि भ्रूण परीक्षण की आड़ में वह लिंग बताने का गैर कानूनी धंधा करता था जिसके चलते उसकी लैब पर 2 वर्ष से सरकार की सील लगी हुई है , और इस वजह से वह जेल भी जा चुका है "।
"अरे ..."
" जिन लोगों की उधारी है उसके सिर पर ,वो आए दिन आकर उससे गाली गलौज करते हैं ।बड़ी शर्म आती है हमें "।
शर्मा जी ने एक गहरी सांस ली, और मौन हो गये।
" आपके घर का रैंट तो समय पर देता है या वो भी ....." गुप्ता जी ने हैरानी से पूछा ।
" अजी कहां ! अभी तक तो किराया मांगने पर पति पत्नी कोई न कोई बहाना बना देते थे ।लेकिन कल जब मैं उनके घर तगादा करने गया , किरायेदार की पत्नी घर में अकेली थी।
मैंने पूछा बेटा पांच माह हो गये ,इस महिने भी किराया देना है या नहीं ।
तो उसने आंखें दिखाते हुए उल्टा मुझी पर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। ' अंकल जी जब पैसे होंगे दे देंगे हम , परेशान करोगे तो देख लेना.. "
" क्या देखना है बेटा मैं कोई नाजायज मांग तो कर नहीं रहा क्या करोगी बताओ " मैंने कहा तो कहने लगी हम एससी हैं और सरकार ने हमारे लिये खास कानून बना रखा है उसी में आपके ऊपर छेड़छाड़ की रिपोर्ट दर्ज करा दूंगी '।
" मैं तुरंत उल्टे पैर हो लिया वहां से ।यार गुप्ता गर्म दूध मुंह में भर लिया है जो न उगलते बन रहा है ,न निगलते ही ।कुछ समझ नहीं आ रहा क्या करूं ।मैं इज्जतदार इन्सान हूं ।इस उम्र में
अगर उसने मुझे फंसा दिया तो मैं तो जीते जी मर जाऊंगा ।
© सुनीता त्यागी
राजनगर एक्सटेंशन गाजियाबाद
ईमेल : sunitatyagi2014@gmail.com
आदरणीय सुनीता जी की रचनाएं हमे मानवीय संवेदना, मानवीय भावना के विभिन्न रूप और तीव्रताएं यथा प्रेम, परवाह, चाह और संकल्प इत्यादि, नज़र की सूक्ष्मता, सामाजिक संघर्ष और विसंगतियों पर प्रकाश डालती और लोगों मे संवेदना और जागरूकता जगाने का सफल प्रयत्न करती दिखती हैं, इनकी रचनाएँ पढ़कर खुद को एक संवेदी और व्यापक सोंच और दृष्टिकोण वाला इंसान बनाने मे मदद मिलती है |
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नीलेश को सामने देख कर पायल को विश्वास नहीं हो रहा था कि ये वही लड़का है जो स्कूल के दिनों में हमेशा उसे परेशान करता रहता था।नीलेश और वो दोनों जब एक ही कक्षा में पढ़ते थे,तब एक दिन वह उसके पीछे ही पड़ गया था।
" पायल मुझे तुम बहुत अच्छी लगती हो "।
" अच्छा!! " पायल ने हंसते हुए जवाब दिया था।
"सीमा बता रही थी,तुम ये शहर छोड़ कर जा रही हो,"
" हां! वो ठीक कह रही थी "।
प्लीज़!. ऐसा मत करना पायल...,मै तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, तुम्हारे बिना रह नहीं सकूंगा "।
" अरे कैसी पागलों वाली बातें कर रहा है तू, अभी तो हमने बारहवीं भी पास नहीं की है। अभी बहुत कुछ करना है लाइफ में, प्यार व्यार की बातें तो बाद में सोचेंगें, पहले पढ़ाई तो पूरी कर लें।समझा ?पायल ने चौंक कर हंसते हुए नीलेश की बात को टालना चाहा।
"लेकिन पायल तुम नहीं जानतीं,मैं तुम्हें दिलो-जान से प्यार करता हूं, बस कभी कह नहीं पाया। यदि यकीन न हो तो चलो मेरे रूम पर" ।
कमरे का कोई कोना ऐसा न था,जहाँ पायल की तस्वीरें न चिपकी हों। हंसती, रोती, खिलखिलाती, उदास, दौड़ती, भागती, हर पोजिशन के फोटो वहाँ लगे थे। कुछ छूटे हुए स्थानों पर पायल,पायल और सिर्फ पायल ही लिखा था । नीलेश की ऐसी दीवानगी देख कर पायल की आंखें विस्मय से फटी की फटी रह गयीं।
" ओ माइ गॉड! ये क्या पागलपन है नीलेश!! पायल ने आश्चर्य से झिड़कते हुए कहा _ क्या सच में तुम मुझे इतना चहते हो!! "।
" आजमा कर देख लो!! तुम कहो तो मैं अपनी जान भी दे दूं , बस एक बार ये कह दो कि तुम भी मुझे..... "।
" अरे अभी तुम्हारी औकात ही क्या है। फिर भी! मैं जो कहूँगी, क्या तुम वही करोगे " ? पायल ने कटाक्ष करते हुए पूछा ।
" तुम कहो तो सही "।
" तो फिर मुझसे ये वादा करो, कि जब तक तुम पढ़ लिख कर मेरे योग्य नहीं बन जाओगे, मुझसे कभी नहीं मिलोगे "।
पायल की बातों ने नीलेश के भीतर गहरे तक वार कर दिया था। फिर वह कुछ न बोल सका।
आज वही नीलेश लेफ्टिनेंट नीलेश के रूप में पायल केे सामने खड़ा था।
" हैलो! मैडम! कहां खो गयीं, अन्दर आने को नहीं कहोगी " ।
ओss सौरी आइये! मि. पागल ,। पायल के मुंह से अनायास ही निकल गया। वर्षों से मुर्झाये रिश्ते की लता से आज प्यार के फूलों की भीनी महक फूट रही थी।
© सुनीता त्यागी
राजनगर एक्सटेंशन गाजियाबाद
ईमेल : sunitatyagi2014@gmail.com
आदरणीय सुनीता जी की रचनाएं हमे मानवीय संवेदना, मानवीय भावना के विभिन्न रूप और तीव्रताएं यथा प्रेम, परवाह, चाह और संकल्प इत्यादि , नज़र की सूक्ष्मता, सामाजिक संघर्ष और विसंगतियों पर प्रकाश डालती और लोगों मे संवेदना और जागरूकता जगाने का सफल प्रयत्न करती दिखती हैं, इनकी रचनाएँ पढ़कर खुद को एक संवेदी और व्यापक सोंच और दृष्टिकोण वाला इंसान बनाने मे मदद मिलती है |
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