लोग अंधविश्वास में क्यों फंसते हैं?
लोकल न्यूजपेपर में पढ़ते हुए कि एक पिता ने बेटे की चाह में बेटी की बलि दे दी, इसे पढ़ते हुए मन दुःख के साथ-साथ आश्चर्य से भी भर गया, ख्याल आया कि कैसे अशिक्षित और असंवेदनशील लोग है!
इस अंधविश्वास का कारण क्या हो सकता है?
एक कारण जो मैं समझ पा रही हूं, हो सकता है कि जब हम दुखी होते हैं, तब हमारा मन आशा की किरण ढूंढता हैं। उस समय किसी को वो एक किरण मिल जाती है या एक भ्रम कि उस समय कुछ लोगों को उम्मीद नहीं दिखती है तो वो बाबाओं के पास जाते हैं, दरअसल होता ये है, हम उस घोर दुःख की घड़ी में जो हमारे साथ खड़ा होता है उसे हम अपना भगवान समझ लेते हैं और ये वक्त की बात है कि उस समय हमें कैसा इंसान मिलता है, उसी इंसान का हम अनुसरण करते है। इस विश्वास के साथ की हमारी दिक्कतें दूर हो जायेंगी लेकिन अगर ये विश्वास तर्कहीन हो और हम संवेदना और करूणा भूलकर केवल स्वार्थ के वशीभूत हो जायें तो यही विश्वास अंधविश्वास में बदल जाता है, एक सात्विक इंसान का साथ हमें प्रेममयी बनाता है जबकि एक पाशविक प्रवृत्ति के स्वकेंद्रित इंसान का साथ हमें स्वार्थी और संवेदनाहीन बना देता है।
इसीलिए जरूरी है कि ये अज्ञान खत्म हो लेकिन उसमें समय लगेगा। लेकिन जब भी आप किसी संकट से गुजर रहे हों उस वक्त या तो आप खुद की अंतरात्मा पर यकीन करे या उस समय भी आप सही इंसान इस आधार पर चुने कि क्या वह अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरों का अहित करने की बात तो नहीं कर रहा, उसके जीवन में सच कितना है, इस तरह एक चुनाव आपकी जिंदगी बदल सकता है सकारात्मक या नकारात्मक आपके चुनाव पर निर्भर करता है।
दिक्कतें आती जाती रहती हैं, विकल्प मौजूद रहते हैं, दिक्कत के समय में सच्चे इंसान को ही चुनें और दिक्कतों के ऊपर इंसानियत को रखें, खुद से पहले समष्टि को रखें, अपने हित के लिए कोई ग़लत उदाहरण पेश न करें।
आपकी राय क्या है जरूर अवगत करायें।
शुभकामनाएं
-सौम्या गुप्ता
बाराबंकी उत्तर प्रदेश
सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे |
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शुभकामनाएं
दिव्यांम के जन्मदिन पर गिफ्ट में आए ढेर से नई तकनीक के इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों में कुछ को दिव्यम चला नहीं पा रहा था घर के अन्य सदस्यों ने भी हाथ आजमाइश की लेकिन किसी को भी सफलता नहीं मिली तभी कामवाली बाई सन्नो का 11 वर्षीय लड़का किसी काम से घर आया सभी को खिलौनों में बेवजह मेहनत करता देख वह बड़े ही धीमे में व संकोची लहजे में बोला -
'आंटी जी ! आप कहें तो मैं इन खिलौनों को चला कर बता दूं' पहले तो मालती उसका चेहरा देखती रही फिर मन ही मन सोच रही थी कि इसे दिया तो निश्चित ही तोड़ देगा फिर भी सन्नो का लिहाज कर बेमन से हां कर दी और देखते ही देखते मुश्किल खिलौनों को उसने एक बार में ही स्टार्ट कर दिया सभी आश्चर्यचकित थे , मालती ने सन्नो को हंसते हुए ताना मारा -
' वाह री सन्नो ! तू तो हमेशा कहती है पगार कम पड़ती है और इतने महंगे खिलौने छोरे को दिलाती है जो मैंने आज तक नहीं खरीदे '
इतना ही सुनते ही सन्नों की आंखें नम हो गई उसने भरे गले से कहा- ' मैडम जी ! यह खिलौनों से खेलता नहीं बल्कि खिलौनों की दुकान पर काम करता है।'
- मीरा जैन
उज्जैन मध्य प्रदेश
अपनी रचनाओं से संवेदना और स्पष्टता जगाने वाली विख्यात लेखिका श्रीमती मीरा जैन का जन्म 2 नवबंर 1960 को जगदलपुर (बस्तर) छ.ग. में हुआ, आपने लघुकथा , आलेख व्यंग्य , कहानी, कविताएं , क्षणिकाएं जैसी लेखन विधाओं में रचनाएं रचकर साहित्य कोश में अमूल्य योगदान दिया है और आपकी 2000 से अधिक रचनाएं विभिन्न भाषाओं की देशी- विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। और आकाशवाणी सरीखे माध्यमों से जनसामान्य के लिए प्रसारित भी।
आप अनेक मंचो से बाल साहित्य , बालिका महिला सुरक्षा उनका विकास , कन्या भ्रूण हत्या , बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ , बालकों के लैगिंग यौन शोषण , निराश्रित बालक बालिकाओं को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना स्कूल , कॉलेजों के विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा आदि के अनेक विषयो पर उद्बोधन एवं कार्यशालाएं आयोजित कर चुकी हैं।
पता
516 साईं नाथ कॉलोनी,सेठीनगर
उज्जैन ,मध्य प्रदेश
पिन-456010
मो.9425918116
jainmeera02@gmail.com
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"मर गया नालायक! देखो तो, कितना खून पीया था। उड़ भी नहीं पाया, जबकि सम्भव है इसने खतरा महसूस कर लिया होगा।"
"अरे मम्मी, आप दुखी नहीं है अपना ही खून देखकर?"
"नहीं, क्योंकि यह अब मेरा खून नहीं था, इसका हो गया था।"
"आप भी न, उस दिन उँगली कटने पर तो आपके आँसू नहीं रुक रहे थे। और आज अपना ही खून देखकर आप खुश हैं।"
''जो मेरा होता है, उसके नष्ट हो जाने पर कष्ट होता है। पर मेरा होकर भी जो मेरा न रहे, तब उसके नष्ट हो जाने पर मन को संतुष्टि होती है, समझा?''
"बस मम्मी, अब यह मत कहने लगिएगा कि यह खून पीने वाला मोटा मच्छर, कोई ठग व्यापारी या नेता है या फिर कोई भ्रष्ट अफसर! और उससे निकला खून, आपके खून पसीने की कमाई! जिसे पचा पाना सबके बस की बात नहीं!"
"मेरा पुत्तर, कितना समझने लगा है मुझे..! छीन-झपटकर कोई कब तक जिंदा रह सकता है भला। पाप का घड़ा एक न एक दिन तो फूटता ही है।"
© सविता मिश्रा 'अक्षजा'
ईमेल-2012.savita.mishra@gmail.com
अक्षजा जी को पढ़ना संवेदना जगाता है और स्पष्टता से भर देता है, आपने अपनी रचनाओं से मानवीय रिश्तों, संघर्षों, विरोधाभासों प्रकाश डालते हुए या कहें की ध्यान खींचते हुए एक शांतिमय और समृद्ध जीवन / दुनिया के लिए तरह तरह की विधाओं में साहित्य रचकर साहित्य कोश में अमूल्य योगदान दिया है, आपने लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, छंदमुक्त कविता, पत्र, आलेख, समीक्षा, जापानी-विधा हाइकु-चोका आदि विधाओं में ढेरों रचनाएं साहित्य कोश को अर्पण की हैं, आपकी 'रोशनी के अंकुर' एवं 'टूटती मर्यादा' लघुकथा संग्रह तथा ‘सुधियों के अनुबंध’ कहानी संग्रह के साथ अस्सी के लगभग विभिन्न विधाओं में साझा-संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित हैं और 'खाकीधारी' 2024{लघुकथा संकलन} 'अदृश्य आँसू' 2025 {कहानी संकलन} 'किस्से खाकी के' 2025 {कहानी संकलन} 'उत्तर प्रदेश के कहानीकार' 2025 {कथाकोश} का सम्पादन भी किया, आप लघुकथा/समीक्षा/कहानी/व्यंग्य / कविता विधा में कई बार पुरस्कृत हैं| आदरणीय लेखिका के बारे में और इनकी अन्य रचनाओं, योगदान, सम्प्रतियों के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें|
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आलोक और विवेक, शाम को टहलते हुए,
आलोक - यार, विवेक बहुत कहानियाँ लिखी जा रही हैं आजकल, सबको ज्ञान दे ही दोगे लग रहा, बाकी सारे काम बंद कर दिए क्या? और आलोक हंसने लगता है।
विवेक मुस्कुराते हुए- हाँ, आलोक प्रयास तो ऐसा ही है, तुम तो आलोक कहीं डाल नहीं रहे हो, इसीलिए मैं ही ऐसा करने का प्रयास कर रहा हूं। (दोनों हंसने लगते है)
आलोक - अच्छा एक बात बताओ एक दिन में कितनी कहानियाँ लिख सकते हो?
विवेक - (मुस्कुराते हुए) लिखने को तो बहुत सी लिख दूँ, जिन मुद्दों पर लिखना है उनके नाम जेहन में हैं फिर भी अन्य काम भी है और जीविका भी तो चलानी है।
बात को आगे बढ़ाते हुए संयत होकर विवेक कहता है कि लिखने को तो एक दिन में 15 कहानी लिख दूँ अगर इस काम की महत्ता को दर्शाना हो। लेकिन अच्छा प्रदर्शन भी जरूरी है। पर कुछ मोटी बुद्धि के लोग सिर्फ संख्या देखकर ही महत्व समझते है,
©लवकुश कुमार
लेखक भौतिकी में परास्नातक हैं और उनके लेखन का उद्देश्य समाज की उन्नति और बेहतरी के लिए अपने विचार साझा करना है ताकि उत्कृष्टता, अध्ययन और विमर्श को प्रोत्साहित कर देश और समाज के उन्नयन में अपना बेहतर योगदान दिया जा सके, साथ ही वह मानते हैं कि सामाजिक विषयों पर लेखन और चिंतन शिक्षित लोगों का दायित्व है और उन्हें दृढ़ विश्वास है कि स्पष्टता ही मजबूत कदम उठाने मे मदद करती है और इस विश्वास के साथ कि अच्छा साहित्य ही युवाओं को हर तरह से मजबूत करके देश को महाशक्ति और पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाने मे बेहतर योगदान दे पाने मे सक्षम करेगा, वह साहित्य अध्ययन को प्रोत्साहित करने को प्रयासरत हैं,
जिस तरह बूँद-बूँद से सागर बनता है वैसे ही एक समृद्ध साहित्य कोश के लिए एक एक रचना मायने रखती है, एक लेखक/कवि की रचना आपके जीवन/अनुभवों और क्षेत्र की प्रतिनिधि है यह मददगार है उन लोगों के लिए जो इस क्षेत्र के बारे में जानना समझना चाहते हैं उनके लिए ही साहित्य के कोश को भरने का एक छोटा सा प्रयास है यह वेबसाइट ।
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"कब से लाईट गायब है? " पसीना पोंछते विनय ने चिढ़कर बन्द पड़े पंखे को देखते हुए कहा, 'चलो मोटरसाईकिल की सर्विसिंग ही करा लाता हूँ बीरबल चौक से। पर सर्विसिंग कराने जाओ तो तीन-चार घण्टे तो लग ही जाएँगे। दुकान से घर भी दूर है और मेरा मोबाइल भी खराब! कैसे होगा अब इतना टाईम पास? क्या गाड़ी छोड़कर वापस घर आऊँ और फिर जाऊँ?'
'उस दुकान के पास ही तो है न तेरे अश्विन चाचा का नया घर?' उसी समय, गई हुई बिजली वापस आ गई तो ट्यूबलाईट के साथ-साथ माँ की आँखें भी चमक उठीं, 'तेरे चचेरे भाई अनूप का! जिससे तेरी बोलचाल बन्द है। और वो भी तेरी गलतफहमी के कारण! बहुत हो गया वीनू बेटा! अब बस कर ये झगड़ा! जा, वहाँ दुकान से उन के घर हो आना।' रुका हुआ पंखा चला तो कमरे के वातावरण के साथ विनय के मन की उमस भी गायब हो गई। माँ अभी भी समझा रहीं थीं, 'अच्छा मौका है। तेरा टाईम पास हो जाएगा, गाड़ी की सर्विसिंग हो जाएगी और रिश्तों की भी!'
© संतोष सुपेकर
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं |
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सुबह-सुबह बहू घर में हंगामा मचाई हुई थी। पता नहीं, अम्मा जी कहां चली गई हैं। घर में हर जगह देख लीं। वह आस-पड़ोस में भी पता करने चली गई। घर में पति और तीनों बच्चे भी घबरा गए। हे भगवान ! मां अस्सी साल की है। उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता, आखिर कहां जा सकती हैं, अचानक उन्हें क्या हो गया, फोन पर भी जान-पहचान वालों से पूछताछ शुरू हो गई।
पड़ोस के कुछ लोग घर पर आ गए और मां जी के बारे में बातें करने लगे। घर में शोरगुल होने लगा। तभी सबसे छोटा बेटा जो सात-आठ साल का था, सबके बीच में कहने लगा-आप लोग बेकार में परेशान हो रहे हैं, मम्मी को तो पता है दादी कहां जा सकती है, क्योंकि मम्मी ही तो उन्हें पता बताती रहती है। कभी आश्रम जाने को कहती है, कभी मंदिर, कभी तीरथ, कभी बुआ के घर। अचानक ही घर में ऐसी खामोशी छा गई, मानो घर नहीं कोई वीराना हो।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
ईमेल- ssinhavns@gmail.com
आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-
पांच लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
5. कथा कहानी (2023)
अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है।
अपनी सिद्ध लेखनी से सुषमा जी जीवन के अनछुए पहलुओं पर लिखती रही हैं और लघु कथा विधा को और अधिक समृद्धशाली कर रही हैं लेखिका और उनके लेखन, शिक्षा और सम्मान के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें |
अगर आपके पास भी कुछ ऐसा है जो लोगों के साथ साझा करने का मन हो तो हमे लिख भेजें नीचे दिए गए लिंक से टाइप करके या फिर हाथ से लिखकर पेज का फोटो Lovekushchetna@gmail.com पर ईमेल करें।
इंसानियत
गांव की कच्ची-पक्की सड़कें, ऊपर से बरसात का मौसम। जहां-तहां फिसलन और गड्ढे। वह ग्रामीण हाथ में छाता लिये जल्दी में कहीं जा रहा था।
अचानक से एक बाइक ठीक उसके बगले से गुजरी और देखते ही देखते पलट गयी। बाइक सवार लड़का हेलमेट में था, वरना बड़ी घटना घट सकती थी। बाइक के नीचे से वह खुद को निकालने का प्रयास करने लगा, किन्तु पैर में चोट आने की वजह से वह ऐसा नहीं कर पा रहा था। मदद के लिए आवाज देने लगा क्योंकि दो बाइक सवार एक साथ आते हुए दिखे, किन्तु वे दोनों बाइक सवार आगे जाकर रूके सो रुके ही रह गये।ग्रामीण से रहा नहीं गया। वह तेज चाल से चलते हुए घायल लड़के तक
पहुंचा और बड़ी मुश्किल से उसे बाहर निकालने में सफल हुआ। लड़का
जैसे-तैसे लड़खड़ाता हुआ खड़ा होकर उस ग्रामीण के प्रति कृतज्ञता प्रकट
करते हुए धन्यवाद बोला। फिर पलटकर सामने देखा। एक तरफ इंसानियत
जिन्दा थी तो दूसरी तरफ दम तोड़ रही थी। वे दोनों बाइक सवार अब तक
उसकी वीडियो बनाने में व्यस्त दिख रहे थे।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
ईमेल- ssinhavns@gmail.com
आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-
पांच लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
5. कथा कहानी (2023)
अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है।
अपनी सिद्ध लेखनी से सुषमा जी जीवन के अनछुए पहलुओं पर लिखती रही हैं और लघु कथा विधा को और अधिक समृद्धशाली कर रही हैं लेखिका और उनके लेखन, शिक्षा और सम्मान के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक करें |
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शुभकामनाएं
सात वर्षीय सोनू पढ़ रहा था कि अचानक वह कहने लगा, पापा आप मम्मी के बारे में एक बात सुनेंगे तो आपको हंसी आ जायगी। पापा ने भी उसी भोलेपन से पूछा, बताओ, मम्मी ऐसा क्या करती है कि तुम्हें हंसी आती है और मुझे भी हंसी आ जायगी। अब वह पापा के. और करीब आकर कहने लगा, जानते हैं पापा, मैं जब भी मम्मी के साथ मन्दिर जाता हूं तो देखता हूं । मम्मी भगवान जी के सामने एक थाली में लड्डू-पेड़े, फल, सब रखकर थोड़ी देर आंखें बंद कर लेती है फिर उसे उठा लेती है और कहती है कि भगवान जी ने खा लिया। उसके बाद वही लड्डू-पेड़े मुझे देती है कि प्रसाद खा लो, लेकिन पापा मैं हमेशा काउण्ट करता हूं।
भगवान जी एक भी फल-मिठाई नहीं खाते हैं। भगवान जी बोलते नहीं हैं, लेकिन मम्मी पता नहीं कैसे सुन लेती है। मांगते भी नहीं, तो भी मम्मी उन्हें लड्डू-पेड़ा देती है। खाते भी नहीं, परन्तु कहती है खा लिये। दादी तो बोलती है, सुनती भी है, मांगती भी है, उन्हें भूख भी लगती है, लेकिन मम्मी को जल्दी सुनायी ही नहीं देता। अब बताइये पापा, मम्मी सबकुछ उल्टा-पुल्टा करती है कि नहीं। इतना कहने के बाद सोनू, पापा के मुख को गौर से देखने लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि पापा को हंसी क्यों नहीं आ रही है।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
ईमेल- ssinhavns@gmail.com
आदरणीय सुषमा सिन्हा जी का जन्म वर्ष 1962 में गया (बिहार) में हुआ, इन्होने बीए ऑनर्स (हिंदी), डी. सी. एच., इग्नू (वाराणसी) उर्दू डिप्लोमा में शिक्षा प्राप्त की|
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विगत 32 वर्षों से कविता, लघु कथा, कहानी आदि प्रकाशित । इनकी प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं :-
पांच लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
5. कथा कहानी (2023)
अपने शिल्प में निपुण सुषमा जी में अथाह सृजनशीलता है।
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शुभकामनाएं
लड़का- मैं तुम्हें बेहद पसंद करता हूं। तुम जो चाहो ! जैसा चाहो ! मैं
करने को तैयार हूं, बस तुम शादी के लिए हां कर दो। लड़की- तुम्हें पता है न, मैं घर की अकेली लड़की हूं, दो भाई हैं बस कहने भर को। शायद ही हमारी खोज-खबर लेते हैं। मेरी नौकरी और पापा के पेंशन से घर चल रहा है। तुम्हारे घर वालों को हमारी शादी से कोई एतराज तो नहीं ? लड़का-अरे बिल्कुल नहीं।
मेरी मां तो कहती है, जो तेरी पसन्द वही मेरी पसन्द । अब बताओ कब
आऊं बारात लेकर। लड़की- एक खास बात और कहनी है, वह यह कि मेरी मां, मेरी जिम्मेदारी है। इसलिए मैं अपनी विधवा मां को नहीं छोड़ सकती। मैं उसे वचन दी हूं। इसके लिए तैयार हो ! तभी शादी सम्भव होगी। बोलो वचन
देते हो ? लड़का उलझन में पड़ गया। वह सोचने लगा जैसे एक म्यान में दो तलवारें, नहीं रह सकतीं, ठीक वैसे ही एक ही घर में लड़के की मां और लड़की की मां का साथ रहना मुश्किल है।
ऐसे भी मैंने अपनी मां को तो कुछ ऐसा-वैसा वचन दिया नहीं हूं।
उसने कहा ठीक है। मैं तुम्हारे वचन का मान रखूंगा। सचमुच शादी के बाद ऐसा ही हुआ। लड़की की मां घर में, लड़के की मां वृद्धाश्रम में।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
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5. कथा कहानी (2023)
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शुभकामनाएं
मां और शान्ति को लेकर आये दिन घर में कलह होता रहता। बहू किसी भी हाल में मां के साथ रहने को तैयार न थी। महेश अपनी तरफ से समझाने का पूरा प्रयास करता, परन्तु सब व्यर्थ । घर बड़ा था फिर भी मां के लिए जगह न थी। बेचारा बुझे मन से मां को वृद्धाश्रम भेजने को राजी हो गया। मां खुद को बिलकुल असहाय समझती। उसके पास जो कुछ भी था, सब बेटे को देकर पहले ही खाली हो चुकी थी। एक घर बचा था, उसमें भी उसके लिए एक कोना भी न था, जहां वह सुकून से रह सके। क्या करती, महेश इकलौटा बेटा था। काफी समय के बाद उसे अपनी एक पुरानी सहेली से मुलाकात हो गयी।
सहेली शान्ति को तंज कसने लगी-कालेज-स्कूल के दिनों में नारी सशक्तीकरण और महिला उद्धार जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाली को क्या हो गया है ? नारी के हक में लड़ने वाली आज खुद इतनी कमजोर हो गयी ? सहेली, शान्ति का हाल समाचार जानने के बाद ऐसा बोल दी। परन्तु शान्तिअपने नामानुसार सब कुछ सुनकर भी शान्त रही। एक दिन बेटा, मां के पास आकर बिना नजरे मिलाये कहा-मां मैं कुछ दिनों से तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। मां पूरे दृढ़ निश्चय के साथ सर उठाकर कहने लगी-बेटा पहले मेरी बात सुन लो। ऐसा है कि मैं तुमसे पहले यह बात परिवार और पड़ोस में बता चुकी हूं, आज, तुमसे कह रही हूं। परन्तु घबड़ाना मत, मैं कुछ मांग नहीं रही। बस इतना कहना चाहती हूं कि, मैं इस घर में किरायेदार लगाने वाली हूं। अगले महीने घर खाली कर दो ? महेश सन्न रह गया, जिस मां में वह सरस्वती-लक्ष्मी का रूप देखता आया था, आज साक्षात् काली को देख रहा था।
© सुषमा सिन्हा, वाराणसी
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पांच लघुकथा संग्रह
1. औरत (2004)
2. राह चलते (2008)
3. बिखरती संवेदना (2014)
4. एहसास (2017)
5. कथा कहानी (2023)
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