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सर्विसिंग (लघुकथा) - संतोष सुपेकर

"कब से लाईट गायब है? " पसीना पोंछते विनय ने चिढ़कर बन्द पड़े पंखे को देखते हुए कहा, 'चलो मोटरसाईकिल की सर्विसिंग ही करा लाता हूँ बीरबल चौक से। पर सर्विसिंग कराने जाओ तो तीन-चार घण्टे तो लग ही जाएँगे। दुकान से घर भी दूर है और मेरा मोबाइल भी खराब! कैसे होगा अब इतना टाईम पास? क्या गाड़ी छोड़कर वापस घर आऊँ और फिर जाऊँ?'

'उस दुकान के पास ही तो है न तेरे अश्विन चाचा का नया घर?' उसी समय, गई हुई बिजली वापस आ गई तो ट्यूबलाईट के साथ-साथ माँ की आँखें भी चमक उठीं, 'तेरे चचेरे भाई अनूप का! जिससे तेरी बोलचाल बन्द है। और वो भी तेरी गलतफहमी के कारण! बहुत हो गया वीनू बेटा! अब बस कर ये झगड़ा! जा, वहाँ दुकान से उन के घर हो आना।' रुका हुआ पंखा चला तो कमरे के वातावरण के साथ विनय के मन की उमस भी गायब हो गई। माँ अभी भी समझा रहीं थीं, 'अच्छा मौका है। तेरा टाईम पास हो जाएगा, गाड़ी की सर्विसिंग हो जाएगी और रिश्तों की भी!'

© संतोष सुपेकर 

ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com

संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | 


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