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दहेज प्रथा (पुनर्विचार) - लवकुश कुमार और सौम्या गुप्ता

दहेज प्रथा: यह एक ऐसी प्रथा है जिससे शायद ही किसी भारतीय को परिचित कराना पड़े। सदियों से चली आ रही इस प्रथा को कुप्रथा कहना ज्यादा सही होगा। इस शब्द को आप यदि न्याय संगत नहीं पाते हैं तो कोई और शब्द सुझाया जा सकता है।

इतिहास के बारे में कुछ बातें:- 

यह प्रथा कब से शुरू हुई, इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। पर पहले गायों को शादी के समय लड़की के साथ भेज दिया जाता था क्योंकि गाय का दूध लड़की ही दुहती थी इसीलिए लड़की के ससुराल जाने पर गाय उदास रहती थी, इसी कारण गायों को भी साथ भेज दिया जाता था। 

रामचरितमानस में भी राजा जनक द्वारा अपनी पुत्री को संपदा देने का प्रमाण है, राजा जनक व उनके भाइयों के कोई पुत्र भी नहीं था। अतः वह पूरा राज्य उन की सभी भाइयों की बेटियों का ही हुआ।

वर्तमान संदर्भ में आज लड़के वाले लड़की के घर आते है, बहू बना कर लड़की ले जाते हैं। एक तो वर पक्ष  किसी के द्वारा पहले पालन पोषण की गई लड़की को अपने घर लाता है और ऊपर से उसके पिता से पैसे की मांग करते हैं, उसके बाद भी न जाने कितने ही रस्मों के नाम पर दहेज, कपड़े, फर्नीचर पता नहीं क्या-क्या मांगते हैं!, जब बेटी के बच्चे होते हैं तब भी उनसे बहुत कुछ मांगते हैं सब कुछ  बेस्ट चाहिए होता है, यदि कुछ अच्छा नहीं हुआ तो आप मंडली बिठाकर चर्चा करना शुरू कर देते हैं।

 हमें सबसे ज्यादा आश्चर्य इस बात का होता है कि कैसे एक लड़की को दहेज के नाम पर ताना मारने वाली अक्सर सास और ननद होती हैं जिस सास ने पहले ही ये सब झेल रखा होता है, पता नहीं सास बनते ही उसकी सारी संवेदनशीलता कहां चली जाती है? वही सास जब बेटी को दहेज देती है तो मन ही मन सास और उसकी बेटी दोनों को ही बुरा लगता है। 

अब आते हैं इस कुप्रथा के दुष्प्रभावों पर 

आप दहेज से की डिमांड करते ही अपने घर में आने वाले सदस्य के मन में अपने प्रति अनादर का भाव भर देते हैं। भले ही‌ वर पक्ष यही क्यों ना कहे कि यह सब आप अपनी बेटी को ही तो दे रहे हैं, बेटी भी जानती है कि ससुराल में वह किस सामान का कितना प्रयोग करेगी? 

 यह समझना बहुत अचरज का काम है कि कैसे कोई किसी से इतना धन लेने के बाद भी अपनी अकड़ दिखा सकता है इससे दामाद अपने ससुराल वालों की नजरों में भी वह नहीं रहते जो उन्हें होना चाहिए, उन परिवारों को छोड़कर जहां इतनी संपत्ति है कि ये कुप्रथाएं कोई खास असर नहीं छोड़तीं।

अब यदि वर पक्ष चाहे कि वह नया सदस्य आपके घर को अपना माने, मन से सब की सेवा करें, सबसे घुल मिलकर रहे! लेकिन एक बार सोचिए,  दहेज मांग कर‌ क्या एक अच्छे इंसान की छवि बच पाई।

फिर दो तरह की परिस्थितियां आ सकती हैं कि एक तो पारिवारिक शांति के लिए मिलकर रहा जाए और दूसरी की प्रतिशोध की भावना से परायों जैसा व्यवहार!

जब बहू घर को अपना मानती है, घर में शांति रहती है परस्पर सम्मान की भावना होती है तो घर में निरंतर लक्ष्मी आती है और उस  शांति की संभावना अगर पहले ही भंग कर दी गई हो तो ?

इसका सबसे बड़ा परिणाम क्या होता है कि हमारे समाज में कन्या भ्रूण हत्या होती है, जिंदगी भर बेटी को सही पोषण, शिक्षा, सम्मान कुछ नहीं मिलता क्योंकि आगे चलकर दहेज देना है तो वही पैसा दहेज के लिए बचत में लगाया जाने लगता है, माता पिता और भाई, तनाव में रहकर चिड़चिड़े हो जाते हैं सो अलग।

 मां-बाप बेटी के जन्म के बाद से ही तनाव में रहते हैं, जिस बच्ची के आने पर मां-बाप को खुश होना चाहिए था, वह दुखी हो जाते हैं। 

आश्चर्य की बात यह है कि लड़का जितनी अच्छी नौकरी करता है उतनी ही ज्यादा दहेज की मांग करता है !

आज जरूरत है कि बेटियों को इतना सक्षम बनाया जाए कि वह दहेज प्रथा का मुह तोड़ जवाब दे सके। लड़कों को भी इसके परिणाम समझने होंगे। यदि एक समय में लड़का और लड़की अपने हाथ में दहेज के प्रति विद्रोह की मसाल उठा ले तो इसको प्रथा का अंत हो सकता है। हमें लकीर का फकीर नहीं, कुछ अलग और सार्थक करने की जरूरत है।

आपने दहेज के चलते बहुओं की प्रताणना के बारे में सुना होगा और ये भी सुना होगा कि दहेज प्रथा अधिनियम का दुरूपयोग कर कई परिवार बर्बाद कर दिए गए, इसीलिए यह सोचने की जरूरत है कि अगर दहेज प्रथा जैसी शोषणकारी व्यवस्थाएं न होती तो यह अधिनियम भी न होता और न इसका दुरूपयोग!

दहेज प्रथा की जड़ में एक और बात है, सजातीय विवाह जिसके चलते सीमित विकल्प वधु पक्ष को दहेज देने को मजबूर करते हैं और तो और दहेज की सामर्थ्य न होने पर एक काबिल लड़की एक नाकाबिल इंसान के साथ बांध दी गई, इसके भी कई उदाहरण हैं।

जिन गरीब और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में कमाने खाने और शिक्षा एवं स्वास्थ्य के भी उचित प्रबंध नहीं वो भी दहेज इकट्ठा करने के दबाव में बीमार भी होते हैं, चिड़चिड़े भी और कभी कभी ग़लत कामों में लिप्त भी।

इस प्रथा के दोषी वो भी हैं जो प्रतिष्ठा प्रदर्शन के चलते महंगी शादियों के ग़लत उदाहरण पेश करते हैं, हम सभी को पुनर्विचार करने की जरूरत है।

लवकुश कुमार एवं सौम्या गुप्ता 


लवकुश कुमार भौतिकी में परास्नातक हैं और उनके लेखन का उद्देश्य समाज की उन्नति और बेहतरी के लिए अपने विचार साझा करना है ताकि उत्कृष्टता, अध्ययन और विमर्श को प्रोत्साहित कर देश और समाज के उन्नयन में अपना बेहतर योगदान दिया जा सके, साथ ही वह मानते हैं कि सामाजिक विषयों पर लेखन और चिंतन शिक्षित लोगों का दायित्व है और उन्हें दृढ़ विश्वास है कि स्पष्टता ही मजबूत कदम उठाने मे मदद करती है और इस विश्वास के साथ कि अच्छा साहित्य ही युवाओं को हर तरह से मजबूत करके देश को महाशक्ति और पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाने मे बेहतर योगदान दे पाने मे सक्षम करेगा, वह साहित्य अध्ययन को प्रोत्साहित करने को प्रयासरत हैं।


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं,उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


जिस तरह बूँद-बूँद से सागर बनता है वैसे ही एक समृद्ध साहित्य कोश के लिए एक एक रचना मायने रखती है, एक लेखक/कवि की रचना आपके जीवन/अनुभवों और क्षेत्र की प्रतिनिधि है यह मददगार है उन लोगों के लिए जो इस क्षेत्र के बारे में जानना समझना चाहते हैं उनके लिए ही साहित्य के कोश को भरने का एक छोटा सा प्रयास है यह वेबसाइट ।

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महिला सशक्तिकरण- सौम्या गुप्ता

मेरी सीमित समझ में कुछ विश्लेषण और कुछ उपाय:

महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को निर्णय की शक्ति देना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना, कहा  जाता है कि महिलाएँ अगर नौकरी करें, उन्हें पैसे मिले तो वो सशक्त होंगी लेकिन हो सकता है कि उनके पास यही निर्णय लेने की शक्ति न हो कि उन्हें ये पैसे खर्च कहाँ करने है तो ये सशक्तिकरण हुआ ही नहीं। अच्छी शिक्षा, अच्छा पोषण, समान अवसर जरूरी है।

क्या करे कि महिलाएं सशक्त हो?

जब बच्ची छोटी हो उसे पूरा पोषण युक्त भोजन दीजिए, लड़की होने के कारण उसे बासी या बेकार खाना मिलना उसके सशक्तिकरण में बाधक है।

बच्चियों को सही शिक्षा दिलवाएँ और वो ऊँचे से ऊँचा जो भी पढ़ना चाहे उसका यथासंभव प्रयत्न करें साथ ही आध्यात्मिक शिक्षा भी दें जिससे वह सीख सके कि वो देह नहीं चेतना है।

उसको कंप्यूटर तथा अन्य आधुनिक तकनीकी शिक्षा भी दिलाएँ, जिससे अगर जब भी उसे नौकरी करना हो वो उसके लिए योग्य हो।

एक सबसे अहम् पहलू है कि महिलाओं को अपनी फिटनेस का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है, खेल, व्यायाम जैसी गतिविधियां हों उनकी दिनचर्या में क्योंकि बचपन से ही उन्हें उछलने-कूदने- खेलने की आजादी उन्हें शारीरिक के साथ मानसिक रूप से भी मजबूत करेगी।

बचपन से ही उसके मन में ये न भरे कि वो पराई है, पराए घर जाना है। ऐसी भावनात्मक आघात वाली छोटी- छोटी बातें बेटियों को अंदर तक खत्म कर जाती हैं और उनका जीवन में कुछ बड़ा सोचने और करने का उत्साह कम या खत्म हो जाता है।

२०२० में इतिहास के एक सर्वेक्षण में सामने आया था कि महिलाएँ भी पहले शिकार पर पुरुषों के साथ जाती थी। अभी हाल ही में भी एक ऐसा ही सर्वेक्षण सामने आया था। ये सर्वेक्षण बताते है कि महिलाओं के दिमाग में हमने अगर ये कमजोरी का कीड़ा न बिठाया होता तो वो आज अधिकांश क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर होतीं।

आदर्श स्थिति यह है कि जैसे पुरुष सशक्तिकरण जैसी कोई स्थिति नहीं होती वैसे ही महिला सशक्तिकरण जैसी कोई बात ही न करनी पड़े। पर यह एक आदर्श स्थिति है जिसे पाने में शायद दशकों लगे पर ये शुरुआत तो की जा सकती है और ये शुरुआत हमें ही करनी होगी।

-सौम्या गुप्ता 

बाराबंकी उत्तर प्रदेश 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, 

उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


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चाह ( लघुकथा ) - मीरा जैन

 स्वाति को देखते ही गोमती का पारा सातवें आसमान में पहुंच गया
' देखो-देखो , इस महारानी को  बड़ी शान से चली आ रही है आज साल भर का इतना बड़ा दिन है,  लक्ष्मी पूजन का महत्त्व ही नहीं है इसके लिये, अरे ! रीति-रिवाज , धर्म-संस्कृति भी कोई चीज होती है केवल पैसे के पीछे भागने से कुछ नहीं होगा समझी, एक दिन नहीं जाती तो कौन सा तूफान आ जाता----.'
मां का गुस्सा देख संदीप भी सहम  गया स्वाति भी चुपचाप अपने कमरे में चली गई.  मां के सामने संदीप की हिम्मत नहीं हो रही थी कि स्वाति को खाने की टेबल पर बुला ले, तभी दरवाजा खुला और स्वाति हाथ मुंह धो, कपड़े बदल कर खाने की टेबल पर आ खाना खाने लगी लेकिन उसकी आंखों में आंसू देख संदीप ने कहा-
' रो क्यों रही हो , मां का गुस्सा भी वाजिब है कम से कम आज के दिन तो तुम्हे घर पर ही रहना चाहिए था '
जवाब मे स्वाति बोली-
'  संदीप ! ये खुशी के आंसू है , मां ने क्या-क्या कहा मुझे कुछ ध्यान नहीं है , मैं तो उस क्षण से अब तक अभिभूत हूं जब गायत्री के परिजनों ने मेरे पैर पकड़ कहा-
' आप साक्षात देवी की अवतार हैं आपने जच्चा और बच्चा दोनों को बचा लिया हम लोगों ने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी दीपावली में हमारे घर भी लक्ष्मी आई है हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वह भी आपकी तरह नेक दिल और सेवाभावी बने '
 और मालूम संदीप ! आज मैने  उनसे  ऑपरेशन की फीस भी नहीं ली'
 स्वाति की बात सुन रही सासु मां का दिल भर आया सोचने लगी-
 ' मैं अपनी बहू सी कब बनूंगी '

- मीरा जैन

उज्जैन म०प्र०


अपनी रचनाओं से संवेदना और स्पष्टता जगाने वाली विख्यात लेखिका श्रीमती मीरा जैन का जन्म 2 नवबंर 1960 को जगदलपुर  (बस्तर) छ.ग. में हुआ, आपने  लघुकथा , आलेख व्यंग्य , कहानी, कविताएं , क्षणिकाएं जैसी लेखन विधाओं में रचनाएं रचकर साहित्य कोश में अमूल्य योगदान दिया है और आपकी 2000 से अधिक रचनाएं विभिन्न भाषाओं की देशी- विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। और आकाशवाणी सरीखे माध्यमों से जनसामान्य के लिए प्रसारित भी।          
आप अनेक मंचो से बाल साहित्य , बालिका महिला सुरक्षा उनका विकास , कन्या भ्रूण हत्या , बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ , बालकों के लैगिंग यौन शोषण , निराश्रित बालक बालिकाओं  को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना स्कूल , कॉलेजों के विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा आदि के अनेक विषयो पर उद्बोधन एवं कार्यशालाएं आयोजित कर चुकी हैं।

पता
516 साईं नाथ कॉलोनी,सेठीनगर
 उज्जैन ,मध्य प्रदेश 
पिन-456010
मो.9425918116
jainmeera02@gmail.com

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सिनेमा, वास्तविकता, प्रतिनिधित्व और समय रूपी संसाधन ( पुनर्विचार )- सौम्या गुप्ता

आज से कुछ साल पहले जब मैं कोई सीरियल या कोई फिल्म देखती थी तब मुझे वहां की स्वच्छता, वहां बड़े- बड़े घर, और बहुत सारी चीजें देख कर यह मन करता था कि काश यह सारी चीजें मेरे पास भी होती। इसीलिए मैं अपने घर को वैसा रखने की कोशिश करती थी लेकिन एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार और एक उच्च वर्ग के बीच समानता लाने की सोच भी जैसे एक बेवकूफी भरी सोच ही थी, लेकिन तब यह समझ नहीं थी कि चीजें सच में कैसी होती हैं? बस मैं यह सारी चीजें करना चाहती थी लेकिन जब मैं बड़ी हुई और चीजों को समझा और देखा की फिल्म की शूटिंग कैसे होती है तो मैंने देखा कि वहां पर जहां बड़ा घर होता था, वहां कुछ सेटअप ही था। 

अब मैं सोचती हूं तो हँसी आती है कि मैं कितने बेवकूफी भरे सपने संजो रही थी। यहां मैंने यह इसलिए बताया है कि आप जब फिल्मों को या सीरियल्स को देखें तो इस बात का ध्यान रखें कि उसमें सच्चाई हो सकती है लेकिन पूरी फिल्म सच्ची हो जरूरी नहीं, नाटकीय रुपांतरण और असली हालात को पर्दे पर लाने की सीमित क्षमता, जैसे पहलू भी ध्यान रखें और नकल करने की कोशिश न करें, जरूरत नहीं, अपने विवेक से काम लें और इस बात को ध्यान रखें कि इंसान उन‌ चीज़ों के लिए ही परेशान रहता है जिसकी उसे सबसे कम जरूरत है।

लोग सिनेमा से कितना ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं? इसके बारे में कुछ कहना चाहती हूं जब हिटलर जर्मनी में शासक बना, उस समय वहाँ जो लोग कभी एक चींटी तक नहीं मार पाते थे, वह लोग‌ इंसान तक को मार देने लगे थे, ऐसा वहां यहूदियों के प्रति फैलाई गई घृणा के कारण हुआ था।

लेकिन अब जर्मनी में जो नरसंहार हुआ था उसके चिन्ह रखे हुए हैं, लोग वहां पर जाते है तथा अपने पूर्वजों की गलतियों पर दुःख प्रकट करते हैं।आज जर्मनी एक विकसित राष्ट्र है।

प्रेम के उथले स्वरूप को भी कुछ गैर जिम्मेदाराना फिल्मों के चलते ही तवज्जो मिली और अनगिनत युवा डिप्रेशन की गर्त में चले गए।

आप भी सिनेमा, सीरिअल और न्यूज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। आप अगर यह समझना चाहते है कि कानून और राजनीति कैसे हमारे सिनेमा या सीरिअल को प्रभावित करते है तो आप महिलाओं के लिए बनने वाले कानून और उनके समानांतर बनने वाले सीरिअल या फिल्म देखे, पहले महिलाओं को सिर्फ घर तक सीमित दिखाया गया है, फिर नर्स या टीचर के रूप में, फिर पुलिस या वकील के रूप में और अब आज के समय में महिलाओं पर भी हर तरह के रोल फ़िल्माये जाते है।

इसी तरह हमारे समाज में जिस विचारधारा की प्रबलता होती है, वो चाहे धार्मिक, सामाजिक,राजनीतिक,सांस्कृतिक उनकी छाप सिनेमा और सीरियल पर पड़ती ही है।

आप जब इन्हें देखे तो पूरा सच न माने, सच इसके आगे और इससे ज्यादा भी हो सकता है और अक्सर होता ही है। आज आपके पास इन्टरनेट है, आप जो देख रहे है, उसके विपरीत या उसकी समीक्षा भी देखिये या आप खुद उन चीजों पर विचार कर ले। 

शुभकामनाएं 

सौम्या गुप्ता 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


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शुभकामनाएं 

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कार्य का सम्मान, उत्कृष्टता और नवाचार ( पुनर्विचार ) - सौम्या गुप्ता

मैं अक्सर सोचती हूँ कि कुछ लोग बिना काम किए ही कैसे सम्मान पा सकते हैं? लोगों के पास खूब पैसा होता है सिर्फ इसलिए!, भले ही वह काम के मामले में बहुत कम ही काम क्यों न करें।

 ऐसा क्यों होता है? शायद ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकतर लोगों की सोंच अब सामंतवादी हो चुकी है, कि जो काम नहीं करता है वही एक अच्छा जीवन जी रहा है और इसीलिए यह सम्मान देने योग्य इंसान है।

लेकिन हमारी भारतीय सभ्यता इससे बहुत ही अलग है अगर हम राजा जनक की बात करें तो वह भी बिल्कुल भी श्रम को कम महत्व नहीं देते थे। कृष्ण भी अपनी गायों को खुद चराते थे।

अगर हम भारतीय इतिहास की बात करें तो महात्मा गांधी भी श्रम को बहुत महत्व देते थे और अपना रोज़ का काम खुद से ही करते थे, वो किसी से अपना काम नहीं करवाते थे।

फिर हम लोगों के अंदर ऐसा भ्रम क्यों बैठा हुआ है कि जो श्रम करता है, वो कम सम्माननीय है। श्रम न करना, मन के द्वारा आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए किया गया एक खेल मात्र है।

श्रम करना शरीर की और आत्मा की जरूरत है, डार्विन का सिद्धांत है, उत्तरजिविता का सिद्धांत, जिसमें जो प्राणी लड़ता नहीं है, अपने जिन अंगों का उपयोग नहीं करता वो धीरे धीरे समाप्त हो जाते है, बिना श्रम के आप अपने शरीर का ही प्रयोग नहीं कर रहे है, उपरोक्त सिद्धांत के आधार पर आप अपना निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

जिस दिन हम संघर्षों को और काम को सम्मान देना सीख जाएंगे, उस दिन हमारी बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक कम हो जाएगी। आज बेरोजगारों में काफी लोग ऐसे हैं कि उन्हें कोई ऐसा काम नहीं मिल पाता है जो समाज की नजरों में सम्मानजनक हो!

ज्यादातर सम्मान वाले काम इस नजरिये से देखे जाते है कि इसमें काम कितना कम है, इसीलिए लोग सालों साल प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे रहते है और बेरोजगार रहते है।

बेरोजगारी जो हर बार चुनावी मुद्दा भी बनता है, वो इसलिए है क्योंकि लोग श्रम का सम्मान नहीं करते, मेरा व्यक्तिगत रूप से यही मानना है कि जब हम काम करना चाहते हैं तो काम मिल जाता है, उसमें पैसे कम हो सकते है लेकिन काम मिल जाता है।

किसी भी इंसान का सम्मान इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि वो सफल हुआ या नहीं? उसको पैसे मिले, कितने मिले, बल्कि इस आधार पर करना चाहिए कि उस इंसान ने अपने उद्देश्य को पाने के लिए मेहनत कितनी की थी और कितने दिल से की थी, साथ ही उसका उद्देश्य कितना सच्चा था अगर उसकी मेहनत सच्ची है तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए।

यही नजरिया बेरोजगारी को कुछ हद तक कम करने का शायद सबसे अच्छा और सबसे सही तरीका हो सकता है, तब ही ज्यादा से ज्यादा लोग संघर्ष को गले लगाकर कुछ नया, कुछ लीक से हटकर करने का जोखिम उठा पायेंगे क्योंकि तब लोगों के द्वारा उपहास की आशंका कम हो चुकी होगी।

शुभकामनाएं 

- सौम्या गुप्ता 

बाराबंकी उत्तर प्रदेश 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


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प्रेम (लघुकथा)- सौम्या गुप्ता

मुझे तो यह जानकर आश्चर्य हो रहा है, प्रेम वो भी रचित से? तुम यह क्या कह रही हो संयोगिता?, साधना ने संयोगिता से पूछा, मुझे बड़ा अजीब लग रहा कि यह जानते हुए भी कि वो कैसा इंसान है, न तुम्हारा और न तुम्हारे खुले विचारों का वो सम्मान करता है, क्या तुमको वो स्वतंत्रता देगा? तुम स्वतंत्र नहीं रहोगी, जो तुम्हारा स्वभाव है, उसके प्रेम में पड़कर तुम, तुम नहीं रह जाओगी, तुम्हारी मुस्कुराहट भी खो जाएगी।

संयोगिता गहरी सांस लेकर, है कुछ बात, साधना, तुम मेरी दोस्त हो, मैं चाहे जिससे प्रेम करूँ, तुम अपनी सलाह मुझपर थोप नहीं सकती।

साधना निराश भाव से कहती है कि संयोगिता जिसे तुम बार बार प्रेम कर रही वह कुछ और है, आगे तुम्हारी मर्जी! पर याद रखना जो आकाश से प्रेम करते है, वो पंखों के बारे में सोचते है और जो कीचड़ से वे केंचुए बनकर ही रह जाते है, चुनाव तुम्हें करना है।

इफ यू लव द स्काई यू विल ग्रो विंग्स

- सौम्या गुप्ता 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


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मिशन ओवर मार्स - फिल्म समीक्षा सह परिचय, सौम्या गुप्ता

मैंने एक बार कहीं पढ़ा था, श्रंगार करती हुई स्त्रियों से ज्यादा सुंदर लगती है संघर्ष करती हुई स्त्रियाँ। ये लाइन मुझे इसलिए पसंद है क्योंकि मैं भी हार नहीं मानती, संघर्ष करती हूं और हर महिला करती है, किसी का संघर्ष जारी रहकर उसे ऊँचाइयों पर ले जाता है और कुछ का संघर्ष बस चार दीवारी में ही खत्म हो जाता है।

आज एक मूवी देखी Mission Over Mars, मुझे लगता है ये उन लोगों को जरूर देखनी चाहिए, जो हार नहीं मानना चाहते और लड़ना चाहते हैं अपनी आखिरी उम्मीद तक।

आप इसमें, कैसे हर मुश्किल का रास्ता निकाला जाता है देख सकते हैं। कैसे डर को भी हथियार बनाया जाता है। मंगल पर जाने वाले मिशन में एक टीम मेंबर को बुरे सपने आते है, और उनकी टीम लीडर उन सपनों को आधार पर जो गलत हो सकता था, उसका तोड़ निकाल लेती है।

जब वो महिलाएँ मिशन के सिवा कुछ नहीं सोचती हो तो किसी को कैसे कम बजट में काम कर सकते है, कैसे अपने पहले के रिसोर्स का उपयोग कर सकते हैं, कैसे मुश्किल में अनजाने ही भगवान हमारे मददगार बन जाते है या प्रकृति का संयोग हमारे पक्ष में होकर हितकारी हो जाता है? आखिरी क्षण जब हमें लगता है कि कुछ नहीं हो सकता तब कुछ ऐसा अचानक से दिख जाता है और लगता है कि ये किया जा सकता है। कैसे यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि कैसे एक मिशन फेल भी हो सकता है, जब आपको सटीक  गणना से पता चलता है, तभी आप सब सही कर पाते हैं, माने हमारे पास जानकारी और आंकड़े होने चाहिए बेहतर निर्णय निर्माण के लिए, कैसे हम सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग कर सकते हैं, जब हमारे पास काम के लिए सही जुनूनी लोग हो। इससे सीखा जा सकता है, आशा कभी मत खोए, हमेशा नजर समाधान की ओर हो। आपकी काम के प्रति सच्ची भावना आपको सफल बनाती ही है।

देर किस बात की आप भी देख डालिए इस फिल्म को और दे दीजिए एक समावेशी विस्तार अपनी समझ और दृष्टिकोण को।

Happy Movie Watching!

सौम्या गुप्ता 

बाराबंकी उत्तर प्रदेश 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


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चुनाव - ईर्ष्या बनाम तरीका ( पुनर्विचार ) - सौम्या गुप्ता

अमूमन ऐसा देखा गया है कि जब भी हम किसी को अपने से आगे बढ़ते हुए देखते हैं, पढ़ाई में खुद से आगे देखते हैं, या अच्छी स्थिति पर देखते हैं तो हमारे अंदर एक ईर्ष्या की भावना पैदा होती है।

क्या हमने कभी सोचा है कि ईर्ष्या के कारण हमारा क्या नुकसान होता है? सबसे पहला नुकसान ये होता है कि हम उस व्यक्ति से जिससे हम ईर्ष्या कर रहे है उससे सीखना बंद कर देते हैं, अब आप सोचेंगे कि हम सीखना कैसे बंद कर सकते हैं? आप सोचिए अगर आप से कोई पढ़ाई में आगे निकल गया है और आप उसके प्रति जलन की भावना रख रहे हैं तो आप कभी भी उससे बराबरी नहीं कर पाएंगे, लेकिन अगर आप उनसे पूछे कि आपने इतने अच्छे से सारी चीजें कैसे मैनेज कीं, आपने किस तरह से पढ़ाई की तो अगली बार आप भी बेहतर प्रदर्शन कर सकते हो। इस तरह से बहुत सारी चीजें हैं जो हम अपने से आगे बढ़ते हुए लोगों से सीख सकते हैं। लेकिन जलन की भावना जो होती है वह हमें सीखने से कहीं ना कहीं बहुत पीछे ले जाती है और जो हम अपना भी थोड़ा बहुत कर सकते थे, वह भी अच्छे से  नहीं कर पाते इस तरह जो हमें होना चाहिए था हम वह भी नहीं हो पाते हैं और दूसरे से बेहतर वह भी कहीं न कहीं असंभव हो जाता है इसलिए ऐसे लोगों को अपनी आदत पर एक बार विचार करने की जरूरत हैं।

- सौम्या गुप्ता 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी रचनाओं से जीवन, मानव संवेदना एवं मानव जीवन के संघर्षों की एक बेहतर समझ हांसिल की जा सकती है, वो बताती हैं कि उनकी किसी रचना से यदि कोई एक व्यक्ति भी लाभान्वित हो जाये, उसे कुछ स्पष्टता, कुछ साहस मिल जाये, या उसमे लोगों की/समाज की दिक्कतों के प्रति संवेदना जाग्रत हो जाये तो वो अपनी रचना को सफल मानेंगी, उनका विश्वास है कि समाज से पाने की कामना से बेहतर है समाज को कुछ देने के प्रयास जिससे शांति और स्वतंत्रता का दायरा बढे | 


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शुभकामनाएं

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हम एक हैं - सौम्या गुप्ता

अलग-अलग रंगरूप हमारे, दिल की धड़कन एक है।

जाति अलग है, धर्म अलग है, छत पर आकाश एक है।

अलग-अगल है धन की माया,

अलग-अगल है सबकी काया,

पर सबके पैरों के नीचे, देखो धरती एक है।

अलग-अलग है भाषा सबकी,

अलग-अलग हैं व्यंजन सबके,

'थोड़ा सा और लीजिए न' ये भाव तो एक है।

अलग-अलग है ईष्ट हमारे,

अलग-अलग है मंदिर - मस्जिद,

पर सभी ईष्टों का संदेश 'सेवा भाव' भी एक है।

-सौम्या गुप्ता 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |


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उड़ान - संजय सिंह 'अवध'

तुम स्वप्न से भरी उड़ान भरो, मैं उसका कारण बन जाऊँ,

नीले अम्बर में प्राण भरो, उसका संसाधन बन जाऊँ

नयनों में समेटे ये धरती, आकाश से भी रिश्ता जोड़ो.

निर्भीक सी सभी उड़ान भरो, भय का निष्कासन बन जाऊँ।

निष्पादित हो नियमों से कर्म, नियमों की मूरत बन जाऊँ,

हर सूरत कर्म का पालन हो, मैं ऐसी सूरत बन जाऊँ,

जो हो संरक्षा की बातें, तो नाम शीर्ष पर आ जाए,

पर्याय रहूं संरक्षण का, मैं वहीं ज़रुरत बन जाऊं।

तुम नभ से भी ऊंचा उड़ना, बेफिक्र बादलों से लड़ना,

हो तूफानों से मिलन कभी, तुम चीर उन्हें आगे बढ़ना,

ये हाथ, ये साथ, ये परवाज़े, सब जुड़े अटूट डोर से हैं,

इक छोर डोर की तुम बनना, दूजी वो छोर मैं बन जाऊं।

- संजय सिंह 'अवध'

ईमेल- green2main@yahoo.co.in

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उक्त मन को छूने वाली कविता के रचयिता भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण में ATC अधिकारी हैं और अपने कालेज के दिनों से ही, जैसा कि इनकी रचनाओं से घोतक है, जन जन में संवेदना, करूणा और साहस भरने के साथ अंतर्विषयक समझ द्वारा उत्कृष्टता के पथ पर युवाओं को अग्रसर करने को प्रयासरत हैं।

कवि के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहां क्लिक करें।

उक्त कविता अपने पूरे अर्थ में सुधी पाठकों को स्पष्टता दे सके आइए इसके लिए एक छोटी सी प्रश्नोत्तरी से गुजर लिया जाए।

*कविता में 'उड़ान' का क्या अर्थ है?*

कविता में 'उड़ान' का अर्थ है सपने देखना, ऊंचाइयों को छूना, और जीवन में आगे बढ़ना। यह बाधाओं का सामना करने और निडर होकर आगे बढ़ने का प्रतीक है।

*कविता में कवि खुद को किस रूप में प्रस्तुत करता है?*

कविता में कवि खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है जो उड़ान भरने वाले का समर्थन करता है, उसके सपनों को साकार करने में मदद करता है, और हमेशा उसके साथ रहता है। वह प्रेरणा, सुरक्षा और मार्गदर्शन का प्रतीक है।

*कविता में 'भय का निष्कासन' का क्या मतलब है?*

कविता में 'भय का निष्कासन' का मतलब है डर को दूर करना, निडर बनना, और आत्मविश्वास के साथ जीवन जीना। यह उन बाधाओं और चुनौतियों का सामना करने का प्रतीक है जो हमें हमारे सपनों को पूरा करने से रोकती हैं।

*कविता में 'नियमों की मूरत बनना' का क्या तात्पर्य है?*

कविता में 'नियमों की मूरत बनना' का अर्थ है नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों का पालन करना, सही राह पर चलना, और दूसरों के लिए प्रेरणा बनना।

*कविता का केंद्रीय संदेश क्या है?*

कविता का केंद्रीय संदेश है सपनों का पीछा करना, बाधाओं का सामना करना, और हमेशा समर्थन और सुरक्षा की भावना के साथ जीवन जीना। यह प्रेरणा, साहस और आशा का संदेश देती है।


इस कविता पर अपनी राय या प्रतिक्रिया आप संपर्क फॉर्म से भेज सकते हैं या lovekushchetna@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं।


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