"एँ! ये कैसा ताला?" सस्ता ताला खरीदने पटड़ी की एक दुकान पर गया और एक ताले को जब हाथ में लिया तो चौंक गया मैं, "दवाओ तो बन्द। और हाथ से खींचो तो खुल जाए? बिना चाभी के ही? ये कैसा ताला है भाई?"
"अरे वो आप छोड़ दो साब।" दुकानदार खिसियाता सा बोला, "वो ढेर मत देखो। वो माल भी आपके लिए नहीं है।" और उसने बाई तरफ इशारा किया, "आप इधर वाले ताले देखो। ये हैं आपके लिए।"
"पर ये खराब ताले..? यहाँ रखे ही क्यों हैं? ये भी बिकते हैं क्या?"
"हाँ बिल्कुल बिकते हैं साब। पीछे वाले रोड़ पर गाँव से आए हुए मजदूरों की कच्ची बस्ती बनी है। वो ही ले जाते हैं ये बिना चाभी के ताले! उनकी जिंदगी में गम के बड़े बड़े ताले तो हैं पर खुशियों की छोटी सी चाभी नहीं।"
"अरे वा! तुम तो फिलॉसॉफर हो।" मैं कुछ गम्भीर तो हुआ लेकिन फिर हँस पड़ा, "पर ये ताले तो खुल जाते हैं बिना चाभी के ही? फिर इनका मतलब ही क्या?"
"उनको मतलब है साब।" दुकानदार का स्वर जैसे किसी गहरे कुएँ से आता लगा तो अब मेरी हँसी भी कुएँ में गिरी किसी अंगूठी सी गायब हो गई, "बो गरीब काम पर जाते हैं तो ऐसे ही टूटे तालों को लगाकर। उनके पास ऐसा होता ही क्या है जो एक चोर के पास नहीं हो?"
- संतोष सुपेकर (लघुकथा संग्रह - प्रस्वेद का स्वर से साभार )
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं | (लेखक के बारे मे विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें )
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