"बैठ जाओ थोड़ा... और ये... चाय पी लो।" बची सीमेंट वह बोरी में भर ही रहा था कि मैंने उससे कहा।
सीमेंट की धूल सने हाथ, पास रखे कपड़े से पोंछकर वह जमीन पर ही बैठ गया, चाय सुड़कते हुए उसने जेब में रखी अधजली बीड़ी सुलगा ली।
"ये... बीड़ी कब से पी रहे हो ?"
"हं हं हं" वह हँसा, खाँसा और ढेर सारा धुआँ उसके मुख से निकला,
"बीड़ी तो भोत पेले से पी रा हूँ। मेरे को तो लागे हे कि जनम से पेले से... बीड़ी पी रा हूँ।" कहते-कहते फिर लम्बा कश खींचा तो बीड़ी के साथ-साथ उसकी आँखें भी चमक उठीं।
"जन्म से पहले से पी रहे हो, मतलब ?"
"मतलब ये कि जब अम्मा के पेट में था तब से..." बची हुई चाय गटकता वह हँसकर बोला, "अम्मा भी तो बीड़ी पीती थी।"
"हें ? तुम्हारी माँ बीड़ी पीती थी ?" मैंने वितृष्णा से कहा, "औरत होकर भी ?"
सुनकर उसके चेहरे ने कई रंग बदले, चेहरे से हँसी गायब हो गई, हाथ में थमी बीड़ी उसने एकाएक फेंककर पाँवों तले कुचल डाली, "हाँ साबजी, अम्मा बीड़ी पीती थी, ओरत होके भी, पण मजूरी भी तो करती थी, ओरत हो के भी ?" माथे का पसीना पोंछते हुए वह सँभला और फिर हँसा, "ये. ये पसीना और बीड़ी तो खानदानी हे साबजी !"
© संतोष सुपेकर
ईमेल- santoshsupekar29@gmail.com
संतोष सुपेकर जी, 1986 से साहित्य जगत से जुड़े हैं, सैकड़ों लघुकथाएं. कविताएँ, समीक्षाएं और लेख लिखे हैं जो समाज में संवेदना और स्पष्टता पैदा करने में सक्षम हैं, आप नियमित अखबार-स्तम्भ और पत्र-पत्रिकाओं (लोकमत समाचार, नवनीत, जनसाहित्य, नायिका नई दुनिया, तरंग नई दुनिया इत्यादि) में लिखते रहे हैं और समाज की बेहतरी हेतु साहित्य कोश में अपना योगदान सुनिश्चित करते रहे हैं |
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