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जमीर (लघुकथा)- सौम्या गुप्ता

एक पिता अपनी बेटी से.....तुम बहुत दिनों से जॉब के लिए परेशान थी,  मैंने तुम्हारे लिए जॉब ढूंढ ली है।

बेटी खुशी से..... आप बताइए  पापा कौन सी जॉब है?

पिता ने कहा....अपने दस्तावेज़ निकाल के दे देना, दो लाख का इंतजाम करना होगा।

ये सुनते ही बेटी की खुशी उदासी में बदल गई, उसने कहा पापा ये जॉब तो मेरिट के आधार पर मिलती है,

पिता.. जहां तक मै जानता हूँ ..कोई सरकारी नौकरी बिना घूस के नहीं मिलती, ऐसे सिद्धांत पकड़ के रखेगी तो एक दिन बहुत बुरा हो सकता है,  खाने को भी न रह गया तो? 

बेटी ने कहा.....पापा खाने को कुछ न मिला तो शायद कुछ दिन जी जाऊँगी,  पर किसी दूसरे के हिस्से का खाकर तो जीते जी मर जाने के बराबर है,  मैंने अपनी सहेली को देखा है उसके पिता के बुरे कर्मों के कारण आज वो परेशान है, फिर आपने ही तो सिखाया है अपने सिद्धांतों के साथ खड़े रहना( बेटी ने पिता के मन को कूटनीतिक बुद्धि से जीता क्योंकि वो जानती थी कि उसके पिता कैसे मानेंगे)

इस बहस में बेटी जीत गई और पिता हारकर भी जीत गये ( बेटी ने मन ही मन अपने गुरु को याद किया और उन्हें धन्यवाद दिया जिनके जीवन से प्रेरणा पाकर उसने यह सत्याग्रह जीता था) लेकिन पिता अपनी बेटी की परीक्षा लेकर खुश थे |

- सौम्या गुप्ता 

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश 


सौम्या गुप्ता जी इतिहास मे परास्नातक हैं और शिक्षण का अनुभव रखने के साथ समसामयिक विषयों पर लेखन और चिंतन उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं |


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