Article

रोशनी के डोंगे (लघुकथा) - रजनी शर्मा बस्तरिया

अरसा हो गया था, नपी -तुली हवायें खिड़कियों के सात  पहरों से ही  कुंडियाँ खटखटाकर  आतीं थीं। अब धीरे से रजाई से झाँकता  सूरज!

 कानों में छठ के गीत हक जमाती आ रही थी। अब मैने भी गठियाये  गिरह खोल दिए ।

     ज्यादातर शहर की बालकनियाँ कतरे गये   पौधों की जमात भर रह गई है। जहाँ मंहगे गमले ,कालीन और न जाने क्या-क्या? पर मैंने बालकनी शहर में भी देहाती अंदाज में रखे हैं। इसमें ऐश्वर्य की चीज   बस एक बैठने का मोड़ा । जिस पर बैठकर या बालकनी में दुबककर दुनिया ज़हान को निहारना । यही मेरा गवैंया   शगल ......

     बादलों का टुकड़ा आकर मेरे पास लुढ़क जाता है और हवाएं  अखबार के बाल सँवारने की जिद करती हैं । चाय की ताप मेरे भीतर आ जाती है। 

  रात से  ही शीत से कहा- सुनी हो गई थी पर उम्मीद थी कि  सुबह कनखी कुतरती धूप सुलह करवा ही देगी! और हुआ भी यही‌।  शीत भी आँखें उघाड़ कर सूरज को देखना चाह रही थी , वह भी चोरी छुपे!

  पहले सड़क पर दूर से बजती बैंड बाजे की आवाज आई।  सड़क की अटारी पर पतुरिया, माई के आने की खबर ला रहीं थीं ।

     छठी पर्व के गीत हरक़ारा बन पाती बाँच रहे थे‌ मैं अपनी पारी की प्रतीक्षा में थी।

   अहा !  माहुर रचे  पाँव ,पायल बिछिया। सड़क भी बिल्कुल शांत थी! इतने माहुरिया गंध वाले पाँवों को हौले हौले वह भी सहेज रही थी।

अब अगर यह अवसर गंवा दिया तो फिर साल भर की प्रतीक्षा करनी होगी। सही तो है रोज-रोज वही कीमती पनही की लगातार झझरंग-झझरंग झांपे।

  पाँवों के साथ पाँवजोरी  करती आँचल के छोर  वह भी ललिया चुनर की घेराबंदी में!

  कलाइयों में सतरंगी चूड़ियाँ एक लय में जल तरंग सी बजती हुई। करधन के घुँघरू ,कान के झुमके इतना *शालीन सौंदर्य* आज घाट की ओर! एक लय में जा रहे थे। 

चँपई अंधेरा भी पलक झपकाना भूल गया था। माथे पर चँदा टिकली दपदप करती हुई । मानो ललाट पर ही सूरज उग आया हो और इस चँदा टिकली का डूबते सूरज फिर उगते सूरज से भिड़ंत होने वाली हो!

   गोद में शिशु ,सूपा, टोकनी ईख , कदली फल और न जाने क्या क्या? 

     मैं आज एक-एक दृश्य को भरपूर देखना चाह रही थी। लंबे केशों के स्वामिनियों  के पद चालन की गति चँवर डोला रही थी। हाँ यह कोई साधारण  नहीं बल्कि  व्रती साम्राज्ञियाँ  ही तो हैं।  इनके लिए , इनके संग  रोशनी का साम्राज्य ही तो पसरा है ।

    रेले को  जाते मैने देखा । मैं प्रतीक्षा में थी उनकी वापसी की ।

अहा!

   बंदन नाक से लेकर कपाल के अंतिम छोर तक.........! 

जैसे सूरज अंतिम छोर तक हो। 

माई को गाड़ी में बिठाते नवयुवक, युवतियों की ठिठोली , बहूओं का आँचल, बच्चों के हाथों में गुब्बारे।

   सूरज को लेकर लौटना। दोनो में अर्ध्य, नमन में पगा प्रणाम , बातियों की ऊबक -डुबक, घाट पर रोशनी के डोंगे, और उम्मीद की पतवार ।

संसार के सागर में पार उतरना  इतना आसान होता है क्या? यह चँदा टिकुली जो आकाश के माथे पर लकलका उठा है । इस छठ पर्व की छटा देहाती बालकनी से देखना।

 पर्व मेरे अंतस में उतर गया.....जंगली घास के रंगीन टोकनियाँ । जिजीविषा , संघर्ष, उम्मीद के रंगों से रंगे उनके लिए भी मन  ललच गया।

   मन तो सड़क का  भी ललचा  गया । सड़क आज घाट तक पहुँचने को बहुत आतुर, व्याकुल। घाट जो  जाती थी नदी तक.....  जिस पर उतरती थीं  व्रत धारिणियाँ। माहुर रचे पाँव उतरते थे घाट पर, लहरता पनीला आँचल झरते  फूल ,झलपता नेह ,दोनो में कंपित  दीपशिखा  की लौ ।

 

 जुगजुगाता अंजोर.......

  © श्रीमती रजनी शर्मा बस्तरिया

 रायपुर छत्तीसगढ़


आदरणीय श्रीमती रजनी शर्मा बस्तरिया जी की रचनाएं हमे मानवीय संवेदना,  सामाजिक संघर्ष और विसंगतियों पर प्रकाश डालती और लोगों मे संवेदना और जागरूकता जगाने का सफल प्रयत्न करती दिखती हैं, वह एक शिक्षिका, लेखिका और साहित्यकार हैं, जिन्होंने बस्तर की संस्कृति और जीवन पर आधारित कई किताबें लिखी हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा और बस्तर में तैनाती के दौरान आदिवासी संस्कृति, लोक नृत्य, बोलियों और त्योहारों के बारे में सीखा और इन विषयों पर 14 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ की सरकार और साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है।

अगर आपके पास भी कुछ ऐसा है जो लोगों के साथ  साझा करने का मन हो तो हमे लिख भेजें  नीचे दिए गए लिंक से टाइप करके या फिर हाथ से लिखकर पेज का फोटो  Lovekushchetna@gmail.com पर ईमेल कर दें

फीडबैक / प्रतिक्रिया या फिर आपकी राय, के लिए यहाँ क्लिक करें |

शुभकामनाएं