एक सरकारी कार्यालय का दृश्य, कर्मचारी अपने अपने काम में लगे हैं।
धीमी आवाज में, पदासीन अधिकारी हरीश जी के फोन पर रिंगटोन बजती है, " नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जाएगा "
हैलो, सामने से आवाज आती है
हैलो सचेत भाई कैसे हो, और कैसी चल रही है पहाड़ की यात्रा, हरीश जी पूछते हैं ।
बढ़िया चल रही है हरीश भाई, एक बात बताओ यार ये ड्राइवर को खाना खिलाने की बात हुई थी क्या, ये तो तीनों डाइट क्लेम कर रहा है जबकि मैंने तो ब्रेकफास्ट भी कराया और २०० रुपये भी दिए, सचेत निश्चिंत होना चाहते हैं, हरीश भाई, ऐसी कोई बात हुई थी क्या, अगर हुई है तो मैं दे देता हूं पैसे।
सचेत, हरीश के मित्र हैं और उत्तर भारत के पर्वतों की सैर के लिए ४ दिन के दौरे पर हैं, क्योंकि हरीश इसी पर्वतीय राज्य में केंद्रीय सेवा में हैं अतः दौरे की व्यवस्था इनके हांथ में और खर्चा दोस्त के हांथ में है ।
यथा नाम तथा गुण
सचेत, सचेत हैं कि जब बात नहीं हुई तो पैसे क्यों दें और हरीश, हरीश निकले कि जब बात केवल १००-२०० की हुई थी तो ज्यादा खर्चे के लिए अपने दोस्त को बोलें तो कैसे बोलें हालांकि वो चाहते थे कि ड्राइवर को खाने के लिए उचित भुगतान कर दिया जाए, क्योंकि कम दिहाड़ी में पहाड़ का अपेक्षाकृत महंगा खाना, ड्राइवर की जेब ही खाली कर सकता है।
क्योंकि बात १००-२०० की ही हुई थी इसीलिए हरीश ने सचेत से कह दिया कि वह सारी डाइट्स का भुगतान करने को बाध्य नहीं।
बात आई गई हो गयी हो गई लेकिन हरीश के संवेदनशील मन में विचार और सवाल आने लगे कि जब ड्राइवर को खाना, पार्टी ही खिलाती है तो उसने पहले क्यों नहीं कहा खुलकर, कहा भी तो गाड़ी मालिक ने १००-२०० की बात कही, और फिर झूठ क्यों बोला कि बात हुई है?
एक और बात कौंध गई कि ड्राइवर द्वारा खाने के लिए बोले गए झूठ को तो पकड़ लिया लेकिन उन आनलाइन शापिंग कंपनीज के झूठ का क्या जो १२०० की कीमत की चीज की कीमत को २५०० लिखकर उसे ४०% छूट के साथ १५०० का बेंच देती हैं?
क्या हम इस संगठित झूठ का विरोध कर पाते हैं?
- लवकुश कुमार