धड़ाम- धड़ाम, तेजी से आवाज आ रही है, एक लापरवाह मजदूर, ईंटों को ढंग से रखने के बजाय उन्हें लापरवाही से फेंक रहा है, जो एक पुराने दरवाजे को शिफ्ट करने के लिए तोड़ी गई दीवार से निकलीं हैं।
जयंत जी के घर में रिनोवेशन और कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है।
उनकी बूढ़ी माता जी, देख रहीं हैं कि कैसे उनके और उनके स्वर्गवासी पति के खून पसीने से बनाए गए मकान के कुछ हिस्सों को तोड़कर बदल दिया जा रहा है नए ढांचों से।
एक आम इंसान यादों में जीता है, वो ईंट, सीमेंट का मकान अम्मा की हर याद और संघर्ष का गवाह है इसीलिए उसके किसी हिस्से का टूटना उन्हें वैसे ही तकलीफ़ दे रहा है मानो उनके शरीर का कोई जीवित हिस्सा काटकर अलग किया जा रहा हो।
तोड़ने फोड़ने का सिलसिला पिछले १०-१२ दिनों से जारी है, नौसिखिया मिस्री से कराए गए काम में कई कमियां निकल रहीं हैं और अड़चनें पैदा हो रही हैं सो तोड़ फोड़ मजबूरी नहीं जरूरी हो गई है।
आज भी १२ बोरी मलबा इकट्ठा हो गया, बूढ़ी अम्मा उस मलबे की बोरियों को देख परेशान हैं और बड़बड़ा रही हैं कि ये मलबे का ढेर उनकी आंखों को दिक्कत दे रहा है, आज फिर इतना मलबा! अम्मा ने कहा।
उनके बेटे जयंत उन्हें समझाते हैं कि अम्मा अगर पुरानी गलतियों को सही करना है तो कुछ तोड़ फोड़ तो होगी है, जब सोच ही लिया है कि अब बेहतर डिजाइन से काम करवाना है तो मलबे से परहेज़ क्यों, ये तो पार्ट आफ द प्रोसेस है।
वैसे भी पुराने वक्त में आप या पापा और उस वक्त काम कर रहा मिस्री अपने हिसाब से सही ही किए होंगे, दूरदर्शिता तब नहीं थी तो गुस्सा आज क्यों?ये चिढ़ आज क्यों?
-लवकुश कुमार