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अजीब - एक लघुकथा

क्या बात है कनिष्क किन यादों में डूबे हो ? 

निशीथ ने अपने रूममेट से पूंछा।

 

यही कि लोग कितने अजीब हैं, जो लोग उन्हें तरह तरह के झूठ बोलकर अंधेरे में रखते हैं,

असहमत होने पर भी अपनी असहमति व्यक्त नहीं करते और पीठ पीछे बुराई करते हैं

और तो और ऐसे लोग उनसे अपने मन मुताबिक काम भी करवा लेते हैं, ऐसों से तो वो

बहुत नज़दीक रहते हैं और मेरे जैसे लोग ( गहरी सांस लेते हुये )

जो उनका भला चाहते हैं, उनकी सुविधा असुविधा का ख्याल रखते हैं

उनसे वो दूरी बना लेते हैं क्या केवल इसलिए कि मैं उनकी बात से

सहमत न होने पर तुरंत अपना पक्ष रख देता हूं, कितना अजीब है न ?

 

हां अजीब तो है, निशीथ ने एक लंबी सांस लेते हुए कहा।

 

ये और भी अजीब होगा अगर तुम ऐसे " अंधेर-पसंद " इंसान से मेल जोल न बढ़ पाने पर

दुखी होते रहोगे जो सामने वाले से हर बात में केवल

" हां बिल्कुल सही " सुनना चाहते हैं और सामने वाले के "जीवन में सत्य के स्थान" के

बजाय अपने प्रति "तथाकथित समर्पण" को ही मानदंड मानते हैं।

 

यह सुन कनिष्क कमरे से बाहर निकल आया और हास्टल की बालकनी पर खड़ा हो

नीचे से गुलाब के फूलों की महक से सनी ठंडी हवा के झोंके को अपने गालों पर महसूस

करते हुए अपनी पसंद की समीक्षा करने लगा।

 

-लवकुश कुमार