इस लेख का संदर्भ एक संदेश है जो मुझे आचार्य प्रशांत जी की संस्था से प्राप्त हुआ, पहले संदेश पढ़िए फिर मेरी टिप्पणी।
संदेश -------
🔥 हम एक खोज पर निकले, और देखिए हमें क्या मिला! 🔥
हमने लोगों से पूछा, “क्या आपकी ज़िंदगी खुशहाल है?”
लोग बोले, “नहीं”
हमने कहा, “तो क्या अपनी ज़िंदगी बर्बाद करने का फैसला आपने खुद सोच समझ कर लिया?”
लोग बोले, “नहीं”
हमने पूछा, “फिर ये हुआ कैसे?”
लोग बोले, “हमें तो लग रहा था सब ठीक ही चल रहा है। खुद को होशियार मानते थे।पता ही नहीं चला ज़िन्दगी हाथों से कब फिसल गई”
कोई अपनी ज़िंदगी को बर्बाद करने का फैसला जानबूझकर नहीं लेता।
कोई भी खुद नहीं कहता—_“चलो, ऐसा कुछ करते हैं कि आगे उलझन, तनाव, अकेलापन और पछतावा ही बचे!”__
लेकिन फिर भी यही होता है :
❌ 25 की उम्र में— “मैं इतना उलझा क्यों हूँ?”
जवाब आप 5 साल पीछे छोड़ आए है,
जब 20 की उम्र में गीता को टाल दिया था।
❌ 30 में तनाव, असंतोष और बेचैनी घेरेगी— “मैंने सब कुछ किया, फिर भी चैन क्यों नहीं?”
क्योंकि 25 में जो मार्गदर्शन मिल सकता था,
उसे “अभी नहीं, बाद में” कहकर छोड़ दिया था।
❌ 40 की उम्र में देखेंगे कि रिश्ते खोखले हैं, दोस्त दूर हो चुके हैं, और दुनिया व्यस्त हो गई है।
पर यह अकेलापन 40 में नहीं आया,
यह उसी दिन आ गया था जब आप गीता को छोड़ कर अकेले निकल पड़े थे।
❌ 50 की उम्र में सोचेंगे— “क्या सच में ज़िंदगी का कोई मतलब है?”
क्योंकि जीवन की दिशा तय करने वाले सत्रों से गुज़रने की हिम्मत ही नहीं जुटाई।
❌ 60 की उम्र में पछतावा घेर लेगा— “काश, मैंने सच को टाला न होता।”
लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी।
आपको आज लगता है कि “मैं इतना भी मूर्ख नहीं कि खुद को ऐसी स्थिति में डाल दूँ!”
लेकिन जो गीता सत्रों से पीछे छूट चुके हैं, उन्हें भी यही लगता था।
वो सोचते थे कि “मैं कुछ दिन बाद रजिस्टर कर लूँगा!”
फिर वो दिन कभी नहीं आया।
वो सोचते थे कि “मेरी प्राथमिकताएँ अभी कुछ और हैं!”
फिर वो प्राथमिकताएँ उन्हें ऐसी जगह ले गईं जहाँ से वापसी का रास्ता ही नहीं बचा।
वे आज भी गीता को चाहते हैं, लेकिन अब उनके भीतर की आग ठंडी पड़ चुकी है। अब जीवन के बंधन इतने मजबूत हो चुके हैं कि उन्हें तोड़ना नामुमकिन सा लगता है।
पहला कदम उठाइए, इससे पहले कि माया आपको पूरी तरह पकड़ ले!
~ PrashantAdvait Foundation, on Gita Community Feed.
अब मेरी टिप्पणी -----------
ये उनके लिए है जिन्हें लगता है कि अध्यात्म सबसे आखिरी काम है।
लेकिन मुझे लगता है कि १५ की उम्र से ही इस जीवन में अध्यात्मिक समझ को लाना चाहिए।
नहीं तो एक समय के बाद इंसान को यही लगता है कि *सब कुछ सही चल रहा था पता नहीं कहां लाइन कट गयी*
वास्तव में जैसे शरीर अंदर से अस्वस्थ होने पर पहले छोटे छोटे लक्षण प्रकट करता है और हम नजरंदाज कर देते हैं लेकिन जब समस्या गंभीर हो जाती है तब गंभीर लक्षण प्रकट होते हैं, तब हमें ये लगता है कि ये अचानक कैसे, सबकुछ तो लगभग ठीक चल रहा था!
मैंने सुव्यवस्थित रूप से पहली बार ग्यारहवीं में पढ़ी अध्यात्म की पुस्तक, और इतना जाना कि *जीवन में मेहनत और त्याग का फल कैसा होगा ये "जीवन के केंद्र से निर्धारित होता है, जिसके इर्द गिर्द" हम काम करते हैं।*
आप सहमत हों तो युवाओं में इसे आगे बढ़ा सकते हैं, दिन का एक घंटा अध्यात्मिक साहित्य को देकर युवा और बेहतर स्पष्टता से अपने कैरियर के लिए काम कर पायेंगे, अपने व्यवसाय को और बेहतर तरीके से चला पाएंगे ऐसा मेरा विश्वास है कि स्वयं लागू किया।
ग्यारहवीं से लेकर आज तक तकनीकी शिक्षा के बावजूद नियमित रूप से अध्यात्मिक साहित्य/बोध साहित्य/उत्कृष्ट जीवन साहित्य/बड़े लोगों के जीवन और अनुभव के बारे में पढने को दिनचर्या में उचित स्थान दिया।
शुभकामनाएं 💐