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विकास और पर्यावरण

पहुंची तो सड़क मेरे गांव
लेकिन ले गई रास्ते की छांव।।
ऊपर तो है सुंदर कंक्रीट
 परंतु अंदर  है  गंभीर घाव।।

कही कट रहे पेड़
कही कट रहे पहाड़
जंगलों से निकल जानवर
शहरों में रहे दहाड़

पेड़ो पर विचरते थे जहा खग।
थमते थे छाव के लिए पग ।।

गिलहरी भी कहा दिख रही
कहा छोटी चौपाल लग रही
अलग  सुनसानी सी पसर रही
नदिया,पर्वत पहाड़ी भी डर रही

प्रकृति में अतिक्रमण हम कर रहे।
स्वयं को विकास पुरुष से धर रहे।।
आर्थिकी को ही प्राथमिकता कर रहे
धैर्य न हम धर रहे ।।
विनाश को स्वयं आमंत्रण कर रहे

-डॉ अनिल वर्मा 


लेखक कृषि रसायन में परास्नातक हैं और गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर उत्तराखंड में कृषि रसायन पर शोध कार्य कर चुके हैं।
ये लेखक के निजी विचार हैं और समाज की बेहतरी के प्रयोजन से लिखे गए हैं।